श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भगवान श्रीकृष्ण का स्वरूप-तत्त्व और महत्त्व‘यह सब जगत् मुझसे परिपूर्ण है।’[1] ‘सम्पूर्ण भूत मुझमें ही स्थित हैं।’[2] ‘अर्जुन! समस्त भूतों के हृदय में स्थित सब का आत्मा मैं हूँ और मैं ही समस्त भूतों का आदि, मध्य और अन्त भी हूँ।’[3] ‘सम्पूर्ण जगत् को मैं अपने एक अंश मात्र में धारण करके स्थित हूँ।’[4] ‘मैं अजन्मा, अविनाशीस्वरूप तथा समस्त प्राणियों को ईश्वर रहते हुए ही अपनी प्रकृति में अधिष्ठित रहकर अपनी योगमाया से आविर्भूत होता हूँ।’[5] ‘मुझको जो पुरुष सारे यज्ञ-तपों का भोक्ता, सम्पूर्ण लोकों का महान् ईश्वर और सब प्राणियों का सुहृद् जान लेता है, वह शान्ति को प्राप्त हो जाता है।’ [6] ‘मैं अविनाशी परब्रह्म का, अमृत का, नित्य धर्म का, और अखण्ड एकरस आनन्द का आश्रय हूँ।’[7] अर्जुन कहते हैं - वसुदेवजी कहते हैं - ‘मैं जान गया, आप प्रकृति से परे साक्षात् पुरुषोत्तम हैं। आपका स्वरूप केवल अनुभव और केवल आनन्द है। आप समस्त बुद्धियों के एकमात्र साक्षी हैं।’[9] ‘विभो! लोग कहते हैं - आप स्वयं समस्त क्रियाओं, गुणों और विकारों से रहित हैं; फिर भी जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय आपसे ही होते हैं।’[10] |
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क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ ‘मया ततमिदं सर्वम्’
(गीता 9। 4) - ↑ ‘सर्वाणि भूतानि मत्स्थानि’
(गीता 9। 6) - ↑ अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।।
(गीता 10। 20) - ↑ विष्टभ्याहिमिदं कृत्स्त्रमेकांशेन स्थितो जगत्।।
(गीता 10। 42) - ↑ अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृति स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया।।
(गीता 4। 6) - ↑ भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।।
(गीता 5। 29) - ↑ ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च।।
(गीता 14। 27) - ↑ परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।।
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे।
(गीता 10। 12-13) - ↑ विदितोऽसि भवान् साक्षात् पुरुषः प्रकृतेः परः।
केवलानुभवानन्दस्वरूपः सर्वबुद्धिदृक्।।
(श्रीमद्भा. 10। 3। 13) - ↑ त्वत्तोऽस्य जन्मस्थितिसंयमान् विभो वदन्त्यमीहात् .....।
(श्रीमद्भागवत 10। 3। 19)
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