श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भजतोऽपि ना वै केचिद् भजंत्यभजत: कुत: भगवान् ने कहा, ‘मेरी प्रिय सखियों! जो भजने पर ही भजते हैं-प्रेम करने पर ही प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्यम ही सर्वथा स्वार्थपूर्ण है; उनके न सौहार्द है और न तो धर्म ही। निरा बनियापन है-लेन-देन है; स्वार्थ के अतिरिक्त उनका और कोई भी प्रयोजन नहीं है। जो लोग भजन न करने पर, प्रेम न करने पर भी प्रेम करते हैं, जैसे स्वभाव से ही करुणामय सज्जन और माता-पिता, उनका हृदय सौहार्द से भरा होता है। उनका प्रेम सचमुच निर्मल है और वहाँ धर्म भी है। जो लोग भजन करने पर भी नहीं भजते, प्रेम करने पर भी प्रेम नहीं करते, फिर वे प्रेम करने पर प्रेम का करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं है, ऐसे उदासीन लोग चार प्रकार के होते हैं-आत्माराम, आप्तकाम, अकृतज्ञ और गुरुद्रोही। |
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क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ श्रीमद्भा. 10।32।17-22
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