श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
व्रजसुन्दरियों के भगवानउनका रोम-रोम खिल उठा। इस प्रकार विरहताप प्रशमित होने पर वे अपने प्राणधन श्यामसुन्दर को घेरकर बैठ गयीं। अब फिर हास्य-कौतुक आरम्भ हुआ। आनन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र बड़े निष्ठुर हैं-बड़े छलिया हैं, यह बात उन्हीं के मुख से कहलाने के लिये व्रजसुन्दरियों ने मानो एक पहेली-सी रखकर उनसे पूछा- भजतोऽनुभजन्त्येक एक एतद्विपर्यम्। ‘श्यामसुन्दर! कुछ लोग तो ऐसे होते हैं, जो भजने वालों को ही भजते हैं-प्रेम करने वालों से ही प्रेम करते हैं; कुछ लोग न भजने वालों को भजते हैं-प्रेम न करने वालों से भी प्रेम करते हैं। तीसरे प्रकार के कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो भजने वालों के भी नहीं भजते-प्रेम करने वालों से भी प्रेम नहीं करते; फिर न करने वालों से न करें, इसमें तो बात ही कौन-सी है। प्रियतम! बताओ, इन तीनों में तुम्हें कौन-सा अच्छा लगता है?’ व्रजसुन्दरियों के कहने का तात्पर्य यह था कि इन तीनों में तुम किस श्रेणी के हो-यह स्पष्ट कहो। इसके उत्तर में आनन्दकन्द नन्दनन्दन श्यामसुन्दर ने कहा- मिथो भजन्ति ये सख्य: स्वर्थैकान्तोद्यमा हि ते। |
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क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ श्रीमद्भा. 10।32।16
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