श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
सखियो! यदि तुम मेरे सम्बन्ध में पूछती हो तो मैं इन तीनों (सापेक्ष, निरपेक्ष और उदासीन) में से कोई-सा भी नहीं हूँ। मैं यदि प्रेम करने वालों से कभी वैसा प्रेम का व्यवहार नहीं करता तो इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं उनसे प्रेम नहीं करता। मैं ऐसा इसीलिये करता हूँ कि उनकी चित्तवृत्ति मुझमें लगी रहे। मैं मिलकर फिर जब छिप जाता हूँ, तब भक्तों की वृत्ति मुझमें सारूप्य प्राप्त कर लेती है। जैसे किसी निर्धन मनुष्य को बहुत-सा धन मिल जाय और फिर खो जाय तो उसका हृदय धन की चिन्ता करते-करते धनमय हो जाता है, वह सब कुछ भूलकर उसी में तन्मय हो जाता है, वैसे ही मेरे छिप जाने पर भक्त मुझमें तन्मय हो जाते हैं। श्रीव्रजसुन्दरियों के प्राणधन भगवान् लेन-देन करने वाले व्यापारी नहीं हैं। प्रह्लाद को वर का प्रलोभन देने पर प्रह्लाद ने श्रीभगवान् नृसिंह देव से कहा था-‘जो सेवक आपसे अपनी कामनाएँ पूर्ण करना चाहता है, वह सेवक नहीं, निरा व्यापारी है (न स भृत्यः स वै वणिक्) और जो सेवक से सेवा कराने के लिये, उसका स्वामी बनने के लिये उसकी कामनाएँ पूरी करता है, वह स्वामी नहीं।’ भगवान् ने गीता में जो कहा है- |
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- ↑ 4। 11
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