|
प्राकृतदेह और भगवद्देह
देह प्रधानतया दो प्रकार के होते हैं- प्राकृत और अप्राकृत। प्रकृति राज्य के समस्त देह प्राकृत हैं और प्रकृति से परे दिव्य चिन्मय राज्य के अप्राकृत। प्राकृत देह का निर्माण स्थूल, सूक्ष्म और कारण- इन तीन भेदों से होता है। जब तक ‘कारण’ देह रहता है, तब तक प्राकृत देह से मुक्ति नहीं मिलती। इस त्रिविध-देह समन्वित प्राकृत देह से छूटकर-प्रकृति से विमुक्त होकर केवल आत्म रूप में ही स्थित होने या भगवान के चिन्मय पार्षदादी दिव्य स्वरूप की प्राप्ति होने का नाम ही ‘मुक्ति’ है।
मैथुनी-अमैथुनी, योनिज-अयोनिज- सभी प्राकृत शरीर वस्तुतः योनि और बिन्दु के संयोग से ही बनते हैं। इनमें कई स्तर हैं। अधोगामी बिन्दु से उत्पत्र शरीर अधम है और ऊर्ध्वगामी से निर्मित उत्तम। कामप्रेरित मैथुन से उत्पन्न शरीर सबसे निकृष्ट है। किसी प्रसंग विशेष पर ऊर्ध्वरेता पुरुष के संकल्प से बिन्दु के अधोगामी होने पर उससे उत्पत्र होने वाला शरीर उससे उत्तम द्वितीय श्रेणी का है। ऊर्ध्वुरेता पुरुष के संकल्प मात्र से केवल नारी-शरीर के मस्तक‚ कण्ठ‚ कर्ण‚ हृदय या नाभि आदि के स्पर्शमात्र से उत्पन्न शरीर द्तिीय की अपेक्षा भी उत्तम तृतीय श्रेणी का है। इसमें भी नीचे के अंगो की अपेक्षा ऊपर के अंगो के स्पर्श से उत्पन्न शरीर अपेक्षाकृत उत्तम है। बिना स्पर्श के केवल दृष्टि द्वारा उत्पन्न उससे भी उत्तम चतुर्थ श्रेणी का है और बिना ही देखे संकल्प-मात्र से उत्पन्न शरीर उससे भी श्रेष्ठ पंचम श्रेणी का है।
इनमें प्रथम और द्वितीय श्रेणी के शरीर ‘मैथुनज’ हैं। शेष तीनों ‘अमैथुनज’ हैं। अतएव दोनों की अपेक्षा ये तीनों श्रेष्ठ तथा शुद्ध हैं। इनमें सर्वोत्तम पंचम शरीर है। स्त्री-पिण्ड या पुरुष-पिण्ड बिना भी शरीर उत्पन्न होते हैं परंतु उनमें भी सूक्ष्म योनि और बिन्दु का सम्बन्ध तो रहता ही है। प्रेतादि लोकों में वायु प्रधान और देवलोकादि में तेजः प्रधान तत्तत्-लोकानुरूप देह भी प्राकृतिक- भौतिक ही हैं। योगियों के सिद्धिनित ‘निर्माण-शरीर’ बहुत शुद्ध हैं परंतु वे भी प्रकृति से अतीत नहीं हैं। अप्राकृत पार्षदादि के अथवा भगवान के लिये मंगलमय लीलासगिंयों के भाव देह अप्राकृत हैं और वे प्राकृत शरीर से अत्यन्त विलक्षण हैं। पर वे भी भगवद्देह से निम्नश्रेणी के ही हैं। भगवद्देह तो भगवत्स्वरूप तथा सर्वथा अनिर्वचनीय हैं।भगवान नित्य सच्चिदानन्दमय हैं, इसीलिये भगवान के सभी अवतार नित्य सच्चिदानन्दघन ही होते हैं। पर लीला-विकास के तारतम्य से अवतारों में भेद होता है। प्रधानतया अवतारों के चार प्रकार माने गये हैं- पुरुषावतार, गुणावतार, लीलावतार और मन्वन्तरावतार।
|
|