श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
महाभाग्यवान श्रीवसुदेवजी को अनन्त सूर्य-चन्द्र के सदृश प्रचण्ड शीतल प्रकाश दिखलायी पड़ा और उसी प्रकाश में दिखलायी दिया एक अद्भुत बालक-श्यामसुन्दर, चतुर्भुज, शंख, गदा, चक्र और पद्म से सुशोभित। कमल के समान सुकोमल और विशाल नेत्र, वक्षःस्थल पर श्रीवत्स तथा भृगुलता के चिहृ, गलेमें कौस्तुभमणि, मस्तक पर महान वैदूर्य-रत्र-खचित चमकता किरीट, कानों में झलमलाते हुए कुण्डल, जिनकी प्रभा अरूणाभ कपोलों पर पड़ रही है, सुन्दर काले घुँघराले केश, भुजाओं में बाजूबंद और हाथों में कंकण, कटिदेश में देदीप्यमान करधनी-सब प्रकार से सुशोभित अंग-अंग से सौन्दर्य की रस धारा बह रही है। कैसा अत बालक ! मानव-बालक माता के उदर से निकलते हैं, तब उनकी आँखें मुँदी होती हैं- दाई पांछ-पोंछकर उन्हं खोलती है; पर इनके तो आकर्ण विशाल, निर्मल, पद्मसदृश सुन्दर नेत्र हैं। सम्भव है, कहीं अधिक भुजा वाला बालक भी जन्म जाय; परंतु इनके तो चारों हाथ दिव्य आयुधों से सुशोभित हैं। साधारणतया अलंकारो से बालकों की शोभा बढ़ा करती है; किंतु यहाँ तो ऐसा शोभामय बालक है कि जिसके दिव्य देह से संलग्र होकर अलंकारो को भी शोभा प्राप्त हो रही है। ऐसा अपूर्व बालक कभी किसी ने कहीं नहीं देखा-सुना। यही दिव्य जन्म है। वास्तव में भगवान सदा ही जन्म और मरण से रहित हैं। जन्म और मृत्यु प्राकृतिक देह में ही होते हैं। भगवान का मंगल विग्रह अप्राकृत ही नहीं, अपितु दिव्य भगवत्स्वरूप है। न वह कर्मजनित है न पाच्चभौतिक है। वह नित्य सच्चिदानन्दमय ‘भगवद्देह’ है। शाश्वत और हानोपादानरहित, स्वरूपमय है। उसके आविर्भाव का नाम ‘जन्म’ है और उसके इस लोक से अदृश्य हो जाने का नाम ‘देहत्याग’ है। |
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