श्रीराधा माधव चिन्तन-हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधा का स्वरूपतो यह श्रीराधा-भाव क्या है? भगवान् के स्वरूप का एक भाव है- आनन्द। यह अंश नहीं, आनन्दांश नहीं। सत् भगवान् का स्वरूप, चित् भगवान् का स्वरूप, आनन्द भगवान् का स्वरूप। तो भगवान् का जो स्वरूपानन्द है, उस स्वरूपानन्द का वैष्णव-शास्त्रों में नाम है- ‘आह्लादिनी शक्ति।’ इस आह्लादिनी का जो सार है, जो सर्वस्व है, उसे कहते हैं ‘प्रेम’। उस प्रेम का जो परम फल है, उसे कहते हैं ‘भाव’ और वह भाव जहाँ जाकर परिपूर्ण होता है, उसको कहते हैं ‘महाभाव’। यह महाभाव ही ‘श्रीराधा’ है। भाव के अनेक स्तर हैं- रति, प्रेम, स्नेह, मान, प्रणय, राग, अनुराग, भाव और महाभाव- ये सभी आह्लादिनी शक्ति के भाव हैं। इन सारे भावों का जहाँ पूर्णतम प्रकाश, अनन्ततम प्रकाश है- वह श्रीराधा-भाव है। अब श्रीराधा क्या है? यह कोई नहीं बता सकता कि वे क्या हैं? राधा हैं- श्रीकृष्ण का सुख। राधा हैं- श्रीकृष्ण का आनन्द। राधा न हों तो श्रीकृष्ण के आनन्द रूप की सिद्धि ही न हो। श्रीकृष्ण के आनन्द का नाम है ‘राधा’। इस राधा के अनेक स्तर हैं, अनेक स्वरूप हैं, अनेक विकास हैं। इसलिये आज का यह उत्सव कोई तमाशा नहीं है, न यह किसी का जन्मोत्सव मनाया जाना ही है। यह एक बहुत ऊँचे- ऊँचे-से-ऊँचे साधन का संकेत है। इस साधन के संकेत में जो साधन की दृष्टि से समवेत होते हैं, उन्हें परमोच्च साधन का लक्ष्य प्राप्त होता है। तमाशा देखने वालों को तमाशा दीखता है, दोष देखने वालों को दोष ही मिलता है ! श्रीराधा-भाव में दोषदर्शन भी है, राधा-भाव में गुण दर्शन भी है, राधा-भाव में निर्गुण की झाँकी भी है और राधाभाव इन सबसे परे की अचिन्त्य वस्तु भी है। जिसका जैसा भाव है, वह अपने भाव के अनुसार ‘राधा- के दर्शन करता है। अपने साधन की दृष्टि से वह राधा को देखता है। परमोच्च प्रेमराज्य की आदर्श महिमा यदि कहीं प्रकट हुई है तो वह राधा-भाव में हुई है। राधाभाव का संकेत श्रीमद्भागवत में भी है। राधाभाव नित्यभाव है। जैसे राधा नित्य है, वैसे ही राधा का भाव नित्य है, वैसे ही उसका रास नित्य है। इसमें किस तरह की साधना किस प्रकार से करनी पड़ती है, इसका संकेत शायद रात को कुछ बताया जा सकता है। इतनी समझ लेने की चीज है कि यह साधन-राज्य की एक ऐसी विलक्षण धारा है, जिस धारा में किसी भी दूसरे प्रकार का इसके साथ वैसा सम्पर्क नहीं है, जो इसको प्रभावित कर सके। इसीलिये राधाभाव की साधना वाले जो लोग हैं, वे इस भाव को ज्ञान-कर्मादिसंस्पर्शशून्य कहते हैं। |
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