श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधा का स्वरूप
यहाँ ‘पापनाश का प्रलोभन’ नहीं है। यहाँ साधक के मन में यह नहीं है कि मुझे पाप लगेगा। यहाँ तो वह ‘ब्रह्मभूत’ है, ‘प्रसन्नात्मा’ है। उसे न शोच है न आकांक्षा है। स्वयमेव अपने-आप भगवान् आते हैं, भगवान् की भक्ति प्राप्त होती है। ‘मेरी परा भक्ति प्राप्त करता है’, यह दूसरे स्तर की चीज हैें— ‘मद्भक्ति लभते पराम्’। पर यहाँ भी भक्ति लाभ की आकांक्षा है। जहाँ कोई आकांक्षा नहीं, जहाँ कोई वासना नहीं, जहाँ ‘अहम्’ का सर्वथा विस्मरण-समर्पण है, जहाँ केवल प्रेमास्पद के सुख की स्मुति है और कुछ भी नहीं—यह एक विचित्र धारा है और इस धारा का मूर्तिमान रूप ही श्रीराधा है। जितनी और सखियाँ हैं, जिनकी और गोपांग्नाएँ हैं, वे सब राधाव्यूह के अन्तर्गत आती हैं और राधा इस भावधारा की मूर्तिमती सजीव प्रतिमा हैं। राधा का आदर्श- राधा का जीवन इसीलिये ‘ब्रह्माविद्या’ के लिये भी आकांक्षित है। यह कथा आती है पद्मपुराण के पातालखण्ड में— ब्रह्मविद्या स्वंय तप कर रही है। उनको तप करते देखकर ऋषि पूछते हैं कि ‘आप कौन हैं? आप क्यों इतना कठिन तप कर रही हैं?’ ब्रह्मविद्या ने कहा, ‘मैं ब्रह्मविद्या हूँ।’ ऋषियों ने पूछा, ‘आपका कार्य?’ ब्रह्मविद्या ने कहा कि ‘सारे जगत् को अज्ञान से मुक्त करके ब्रह्म में प्रतिष्ठित कर देना- यह मेरा कार्य है।’ सारे जगत् के अज्ञान-तिमिर को सर्वदा के लिये हर लेना और ज्ञान को प्रकाशित करना— यह उनका स्वाभाविक कार्य है। ऋषियों ने पूछा— ‘तो फिर आप तपस्या क्यों कर रही हैं?’ वे यह तो न कह सकीं कि ‘राधाभाव की प्राप्ति के लिये।’ उनकी यह कह सकने की भी हिम्मत न पड़ी। उन्होंने कहा— ‘गोपीभाव की प्राप्ति के लिये।’ गोपीभाव बड़ा विलक्षण है। श्रीराधा-माधव के सुख की सामग्री एकत्र कर देना जिनके जीवन का स्वभाव हैे— वे हैं गोपी। अपनी बात कहीं नहीं है, जगत् की स्मृति नहीं है, ब्रह्म की परवा नहीं है, ज्ञान का प्रलोभन नहीं है। अज्ञान का तिमिर तो है ही नहीं। वहाँ केवल एक ही बात है, दूसरी चीज है ही नहीं। गोपी केवल एक ही बात को लेकर जीवित रहती है कि वह राधा-माधव को कैसे सुखी देख सके। बस! इसी गोपीभाव में इस प्रकार का प्रलोभन है, इस प्रकार का आकर्षण है कि ब्रह्मविद्या ही नहीं, स्वयं भगवान् इस भाव की प्राप्ति के लिये, इस रस का आस्वादन करने के लिये, इस प्रकार की लीला करने को बाध्य होते हैं, जिससे इस परम पुनीत, परम आदर्श प्रेम-राज्य की कुछ थोड़ी-सी झाँकी जग को प्राप्त होती है! |
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