श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
वह स्वसुख-कामना-वासना का सर्वथा सहज त्यागी होता है। विषयी मनुष्य पाप तथा नरक के बीज रूप ‘विषय-भोगों की कामना’ करता है; दिव्य भोग चाहने वाला पुरुष वैध पुण्यकर्म करके स्वर्ग की कामना करता है; मुमुक्षु साधक अन्तःकरण की शुद्धि के द्वारा तत्त्वज्ञान रूप मोक्ष की कामना करता है और भक्त भी भक्ति के द्वारा भगवान को प्रसन्न करके अपनी रुचि के अनुकूल भगवान के दर्शन तथा सालोक्यादि की कामना करता है। ये सभी एक-से-एक ऊँचे हैं। पहले पापकर्मा भोगकामी के अतिरिक्त अन्य तीनों ही-पुण्यपुरुष हैं और उनका यह ‘काम’ भाव अपने-अपने क्षेत्र में सर्वथा सराहनीय और अवश्य सेवनीय है; पर श्रीराधा एंव उनके अनुयायी भक्तगण इन सभी से आगे बढ़े हुए हैं। वे भगवान से कुछ भी पाने के लिये अपनी कोई रुचि ही नहीं रखते। वे तो केवल भगवान के ‘लीलाक्षेत्र’ बने रहते हैं। इसी त्यागमय सर्वोच्च परम प्रेम का साकार दिव्य विग्रह श्रीराधा हैं। इसीलिये नित्य, सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र श्रीभगवान प्रेम विवश हुए श्री राधा अधीन रहते हैं। |
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- ↑ श्रीमद्भागवत १०। ४६। ४
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