श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
जैसे पुष्प में मधु का संचार केवल मधु प्रेमी मधुकर के लिये ही होता है, वैसे ही श्री राधा जिसकी आदर्श हैं उस गोपी का- उस प्रेमी भक्त का प्रेम-रस--उस भक्त रूपी सुन्दर सुगन्धित सरोज में संचरित प्रेम-मधु और इस प्रकार के प्रेम का अभ्युदय करने में निमित्त होने वाले श्रवण-कीर्तनादि साधन भी सब प्रियतम श्रीकृष्ण-मधुकर के लिये ही होते हैं। इन सब पर उन्हीं का एकान्त एकाधिकार होता है। एक भक्त वह है, जो कर्म करके भगवान के अर्पण करता है। ऐसे भक्त के लिये भगवान गीता[1] में कहते हैं कि ‘तुम जो कुछ भी खाते हो, हवन करते हो, दान करते हो, तप करते हो, कुछ भी करते हो-सब मेरे अर्पण करो। इसका फल होगा शुभाशुभ फलरूप कर्मबन्धन से मुक्ति और अन्त में मेरी (भगवान की) प्राप्ति।’ दूसरा भक्त वह है, ‘जो भगवान की सेवा के लिये (तदर्थ) ही कर्मों का भली-भाँति आचरण करता है, उसकी न कर्म में आसक्ति है न फल में-अतएव उसका कर्मों द्वारा बन्धन होता ही नहीं।’[2] तीसरा भक्त वह है, ‘जो राग-द्वेष से सर्वथा रहित है, भगवान के परायण है, भगवान ही भक्त है, वह अपना कोई कर्म करता ही नहीं, भगवान का ही कर्म करता है- ‘मत्कर्मकृत्’[3]। उनके द्वारा सहज ही सतत भगवान की सेवा होता है।’ इस प्रकार भगवत्सेवा ही जिसके जीवन का स्वभाव-स्वरूप बन गयी है, वही प्रेमी भक्त है- वही गोपी है। गोपी के पास अपना मन नहीं है, भगवान का मन ही उसका मन बन गया है। उसके अपने स्वतन्त्र प्राण नहीं हैं, भगवान् के प्राण ही उसे अनुप्रणित रखते हैं। उसके अपने देह सम्बन्ध के सभी सम्बन्धी तथा कर्म प्रियतम भगवान के लिये परित्यक्त हो गये हैं- |
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज