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फिर राधा की दीन-दशा का करुण चित्र सामने आते ही उद्धवजी अपने को मर्यादा में नहीं रख सके और प्रणय कोप से भरकर वे श्रीकृष्ण से कहने लगे-
- तुम सम निठुर दूजौ कौन?
- राधिका-सी प्रेम-पुतरी रुदित छाँड़ी भौन।।
- बिंधि गयौ नहिं हियौ तेहि छिन कुटिल बज्र-कठोर।
- बीच धारा नाव तज दइ, लै गए नहिं छोर।।
- देखि आयौ, मलिन धूमिल स्वरन-तन कृस छीन।
- बिकल तलफत दीन दिन-निसि जलरहित जिमि मीन।।
- तजे भूषण सकल सुबसन, अंगराग सिंगार।
- सिथिल बेनी सुमन बिखरे, केस रूखे झार।।
- बोध नहिं कछु रात-दिन कौ, नहीं जल-थल-ग्यान।
- आत्म-पर, मानव-अमानव की न कछु पहिचान।।
- हा दयित! हा हृदैबल्लभ! हाय प्रानाधार।
- अश्रुधारा बहत अविरत, करत करुन पुकार।।
- बिरह-ज्वाला जरत मन, तन दहत दारुन पीर।
- जरी परसत कुसुम-सज्या साँस-अनल-समीर।।
- रसरहित उर भयौ, सूख्यौ तप्त आँसू-स्रोत।
- रुकत पुनि पुनि प्रान, पुनि छिन पुनर्जीवन होत।।
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