श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
‘श्रीकृष्ण! तुम-जैसा निष्ठुर दूसरा कौन होगा, जो राधा-सरीखी प्रेमपुतली को घर में रोती हुई छोड़ आये? तुम्हारा वज्र के समान कुटिल कठोर हृदय उसी क्षण बिंध क्यों न गया? जो तुम मझधार में ही नौका छोड़ आये, किनारे तक नहीं ले गये। मैं स्वयं देखकर आ रहा हूँ राधा की दीन-दशा! उसका स्वर्ण-सा शरीर मैला, धुवाँसा, अत्यन्त कृश और क्षीण हो गया है। वह रात-दिन जल से निकाली मछली की तरह अत्यन्त दीन और व्याकुल होकर तड़पती रहती है (पर मछली की तरह उसके प्राण नहीं निकलते)। उसने सम्पूर्ण सुन्दर वस्त्र, आभूषण, अंगराग और श्रृंगार का त्याग कर दिया है; उसके सिर की वेणी ढीली हो रही है, फूल इधर-उधर बिखर रहे हैं और सिर के बाल सब रूखे हो रहे हैं। उसे न रात-दिन का पता है न जल-स्थल का ज्ञान है; न वह अपना-पराया जानती है और न उसे मनुष्य-अमनुष्य- (पशु-पक्षी) की ही पहचान रह गयी है। वह अविराम आँसुओं की धारा बहाती हुई ‘हा प्यारे!’ ‘हा हृदयवल्लभ!’ ‘हाय मेरे प्राणाधार!’ कहती हुई करुण पुकार करती रहती है। |
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