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श्रीराधा-महिमा
वे अपनी एक अंतरंग सखी से कहती हैं--
- सखी री! हौं अवगुन की खान।
- तन गोरी, मन कारी भारी, पातक पूरन प्रान।।
- नहीं त्याग रंचक मो मन में भर्यौ अमित अभिमान।
- नहीं प्रेम कौ लेस, रहत नित निज सुख कौ ही ध्यान।।
- जग के दुःख-अभाव सतावैं, हो मन पीड़ा-भान।
- तब तेहि दुख दृग स्त्रवै अश्रु जल, नहिं कछु प्रेम-निदान।।
- तिन दुख-अँसुवन कौं दिखरावौं हौं सुचि प्रेम महान।
- करौं कपट, हिय-भाव दुरावौं, रचौं स्वाँग स-ज्ञान।।
- भोरे मम प्रियतम, बिमुग्ध ह्वै करैं बिमल मन गान।
- अतिसय प्रेम सराहैं, मोकूँ परम प्रेमिका मान।।
- तुम हूँ सब मिलि करौ प्रसंसा, तब हौं भरौं गुमान।
- करौं अनेक छद्म तेहि छिन हौं, रचौं प्रपंच-बितान।।
- स्याम सरल-चित ठगौं दिवसनिसि, हौं करि विविध विधान।
- धृग् जीवन मेरौ यह कलुषित धृग् यह मिथ्या मान।।
इस प्रकार श्रीराधाजी अपने को सदा-सर्वदा सर्वथा हीन-मलिन मानती हैं, अपने में त्रुटि देखती हैं- परम सुन्दर गुणसौन्दर्य निधि श्यामसुन्दर की प्रेयसी होने की अयोग्यता का अनुभव करती हैं एवं पद-पदपर तथा पल-पल में प्रियतम के प्रेम की प्रशंसा तथा उनके भोलेपन पर दुःख प्रकट करती हैं।
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