श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधा-महिमा
मैं तो रसशास्त्र से सर्वथा अनिभिज्ञ, नितान्त अज्ञ हूँ। इसलिये रस-शास्त्र की दृष्टि से कुछ भी कहना मेरे लिये सर्वथा अनधिकार चेष्टा है। अतः इस विषय पर कुछ भी न कहकर जिनका दिव्यातिदिव्य पद-रज-कण ही मेरा परम आश्रय है, उन श्रीराधाजी के सम्बन्ध में कुछ शब्द उनकी कृपा से लिख रहा हूँ। जिन श्रीराधाजी की अयाचित कृपा से मुझे उनका जो कुछ परिचय मिला है और जिन्होंने अपने महान् अनुग्रहदान से मुझ पतित पामर को अपनाकर कृतार्थ किया है; वे अपने अचिन्त्य महिमा में स्थित श्रीराधाजी न तो विलासमयी रमणी हैं, न उनका उत्तरोत्तर क्रमविकास हुआ है, न वे कविहृदय-प्रसूत कल्पना हैं और न उनमें किसी प्रकार का गुण-रूप-सौन्दर्याभिमान ही है। वे नित्य सत्य एकमात्र अपने प्रियतम श्रीश्यामसुन्दर की सुख विधाता हैं। वे इतनी त्यागमयी हैं, इतनी मधुर-स्वभावा हैं कि अचित्यानन्त गुण-गण की अनन्त आकार होकर भी अपने को प्रियतम श्रीकृष्ण की अपेक्षा से सदा सर्वसद्गुणहीन अनुभव करती हैं, वे परिपूर्ण प्रेमप्रतिमा होने पर भी अपने में प्रेम का सर्वथा अभाव देखती हैं; वे समस्त सौन्दर्य की एकमात्र निधि होने पर भी अपने को सौन्दर्य रहित मानती हैं और पवित्रतम सहज सरलता उनके स्वभाव की सहज वस्तु होने पर भी वे अपने में कुटिलता तथा दम्भ के दर्शन करती और अपने को धिक्कार देती हैं। |
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