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‘प्रियतमे! मेरे मन से तुम्हारी मधुर-मनोहर स्मृति का कभी विराम होता ही नहीं। स्मृति ही क्यों, वस्तुतः तुम्हारी परम ललाम माधुरी मूर्ति निरन्तर मुझमें मिली ही रहती है। तुम्हारे त्याग का क्या वर्णन किया जाय। मुझे अपना बनाने के लिये तुमने बड़ा ही विलक्षण आत्यन्तिक त्याग किया है। (यह त्याग ही परम प्रेमास्पद के रूप में मुझे सदा अपने वश में कर रखने का परम साधन है।) तुमने जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तथा तुरीय में भी केवल मुझमें ही विशुद्ध प्रेम किया। देने पर भी तुमने तनिक भी जागतिक सुख, वैभव तथा सौभाग्य कभी स्वीकार नहीं किया। दिव्य लोक तथा कैवल्य मुक्ति के लिये तुमने सदा अनुपम वैराग्य ही रखा। परम विलक्षणता तो यह है कि उस विलक्षण पवित्र भोग-मोक्ष-वैराग्य में भी तुमने जरा भी राग नहीं रखा, उस वैराग्य की भी परवा नहीं की और मुझमें विशुद्ध मधुर राग रखा। तुम्हारे मन में न भोगासक्ति रही न वैराग्यासक्ति। तुमने भोग और त्याग दोनों का त्याग करके मुझमें अनन्य अनुराग किया। (यह भोग और त्याग दोनों का त्याग ही ‘राधा भाव’ का स्वरूप है।)
- प्रिये! तुम्हारी मधुर मनोहर स्मृति का होता नहीं विराम।
- सदा तुम्हारी मूर्ति माधुरी रहती मुझमें मिली ललाम।।
- मुझे बनाने को अपना अति तुमने किया अनोखा त्याग।
- जाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्ति-तुर्य में रक्खा मुझमें ही अनुराग।।
- नहीं लिया देने पर भी कुछ जग का सुख-वैभव-सौभाग्य।
- दिब्य लोक, कैवल्य मुक्ति में भी रक्खा अनुपम वैराग्य।।
- फिर उस शुचि वैराग्य विलक्षण में भी नहीं रख कुछ राग।
- उसकी भी परवाह न की, करके मुझमें विशुद्ध मधु राग।।
- नहीं तुम्हारे मन में भोगासक्ति, नहीं वैराग्यासक्ति।
- भोग-त्याग कर सभी त्याग, की मुझमें ही अनन्य अनुरक्ति।।
इसी से राधिके! मैं तुम्हारा पवित्र सेवक सदा ही सत्य-सत्य तुम्हारा ऋणी बन गया हूँ।
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