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प्रियतमे! तुम निरन्तर मेरे बाहर-भीतर बसी रहती हो। मैं रसमय-रसस्वरूप हूँ, पर तुम्हारे विशुद्ध प्रेम-रस का आस्वादन करने के लिये सदा ही समस्त श्रुति-मर्यादाओं को भूलकर (कर्मजगत की सारी श्रृंखलाओं को तोड़कर, भगवत्ता को भूलकर) लालायित रहता हूँ। प्रिये! स्वरूपतः मैं निष्काम भी तुम्हारे रस के लिये सहज ही सकाम बना रहता हूँ, सहज ही तुम्हारे रस का लोभी रहता हूँ और निरन्तर रस-रत रहता हूँ।
जिसमें (अपने सुख के लिये) भोग-मोक्ष की शुद्ध कामना का भी लेशमात्र नहीं रहता, वही परम मधुर रस मुझको विशेष रूप से आकर्षित किया करता है। तुम तो अत्यन्त धन्य हो ही, पर तुम्हारी व्यूहरूपा श्रीगोपांगनागण भी धन्य हैं, जिनमें इसी अनन्य विशुद्ध मधुर रस का अनन्त समुद्र सदा लहराता रहता है-
- बना तुम्हारा शुचि सेवक मैं, बना ऋणी रहता मैं सत्य।
- रहती बसी प्रियतमे! तुम मेरे बाह्याभ्यन्तर में नित्य।।
- रसमय मैं अति सरस तुम्हारा निर्मल रस चखने के हेतु।
- रहता नित्य प्रलुब्ध छोड़ मर्यादा, तोड़ सभी श्रुति-सेतु।।
- प्रिये! तुम्हारे लिये सहज बन रहता मैं कामी, निष्काम।
- सहज तुम्हारे रस का लोभी मैं रस-रत रहता अविराम।।
- भोग-मोक्ष की शुद्ध कामना का भी जिसमें रहा न लेश।
- वही मधुर रस निर्मल मुझको आकर्षित करता सविशेष।।
- तुम अति, और तुम्हारी व्यूहस्वरूपा गोपीगण भी धन्य।
- जिनमें भरा समुद्र इसी रस का लहराता नित्य अनन्य।।
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