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इसी कर्म-भाव-ज्ञान-राज्य से अतीत विशुद्धतम भगवद्भाव या विशुद्ध प्रेम राज्य का इस भूमि पर अवतरण गत वैवस्वतीय मन्वन्तर की अट्ठाईसवीं चतुर्युगी के द्वापर में हुआ था- जिसमें, अक्षर कूटस्थ ब्रह्म जिसकी पद नख ज्योति है और जो ब्रह्म के आधार हैं, उन परात्पर श्यामसुन्दर स्वयं भगवान ने अपनी अभिन्नस्वरूपा श्रीराधिका तथा उनकी कायव्यूहरूपा श्रीगोपांगनाओं के साथ अवतरित होकर पृथ्वी तथा पृथ्वी वासी जीवों को धन्य किया था। आज उन्हीं ‘आत्माराम’ भगवान श्रीकृष्ण की आत्मा श्रीराधिकाजी का दिव्य प्राकट्य-महोत्सव है।
अनन्त सच्चिदानन्दघन-विग्रह को आनन्द प्रदान करने वाली परब्रह्मैकनिष्ठ परमहंस अमलात्मा मुनियों के मनों को आकर्षित करने वाले स्वयं भगवान श्रीकृष्ण का भी अपनी सौन्दर्य-सदगुण-माधुरी से नित्य आकर्षक करने वाली, कोटि-कोटि-मन्मथ-मन्मथ सुरासुर-मुनिजन-मन-मोहन विश्वमोहन मोहन के अप्राकृत मन को भी मथित करने वाली, सर्वशक्तिमान सर्वेश्वरेश्वर भगवान को उनकी सारी भगवत्ता की विस्मृति कराके नित्य-निरन्तर अपने पवित्रतम मधुरतम आनन्द चिन्मय प्रेम-रस-सुधा पान में प्रमत्त रखने वाली भगवान श्रीकृष्ण की ही अपनी ह्लादिनी शक्ति श्रीराधारानी की महिमा का वर्णन कौन कर सकता है। श्रीश्यामसुन्दर और श्रीराधारानी नित्य एक ही तत्त्व के दो नित्य-रूप हैं। वहाँ कोई भी भेद नहीं है।
‘नासौ रमणो नाहं रमणी’- न वहाँ स्त्री-पुरुष-भेद है तथापि श्रीराधाजी नित्य-निरन्तर अपने प्राण प्रियतम श्रीश्यामसुन्दर की भावमयी सर्वात्म-समर्पणमयी तथा दिव्यतम परम त्यागमयी आराधना में लगी रहती हैं और श्यामसुन्दर तो श्रीराधिकाजी को अपनी आत्मा अथवा अपने जीवन की मूल रक्षा निधि ही मानते हैं। यद्यपि श्रीराधाजी! श्रीकृष्ण से नित्य अभिन्न हैं और उनमें वस्तुतः परात्पर भगवान श्रीश्यामसुन्दर के ही दिव्य गुणों का प्राकट्य है, फिर भी विशुद्ध प्रेम राज्य में कैसे क्या लक्षण होते हैं, प्रेमी की कितनी, कैसी त्यागमयी जीवन धारा होती है एवं प्रेमी के साथ प्रेमास्पद के कैसे भाव-व्यवहार होते हैं, इसका एक आदर्श दिखाते हुए श्रीश्यामसुन्दर राधारानी से कहते हैं-
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