श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
इससे आगे एक महाभावरूप ‘भगवद्भाव-राज्य’ है। भुक्ति-मुक्ति, कर्म-ज्ञान आदि की वासना से शून्य पुरुष ही इस परम ‘भावराज्य’ के अधिकारी होते हैं। उपर्युक्त तत्त्वज्ञानी मुक्त पुरुषों में भी किन्हीं-किन्हीं में ‘भगवत्प्रेमांकुर का उदय हो जाता है, जिससे वे दिव्य शरीर के द्वारा उपर्युक्त कर्म-भाव-ज्ञान-राज्य से अतीत भगवद्भाव-राज्य में प्रवेश करके प्रियतम भगवान के साथ लीला विहार करते हैं या उनकी लीला में सहायक-सेवक होकर उनके सुख में ही अपने भिन्न स्वरूप को विसर्जित कर नित्य सेवारत रहते हैं; परंतु भोग-मोक्ष की कामना-गन्ध-लेश से शून्य, सर्वात्मनिवेदनकारी महानुभावों का ही इसमें प्रवेश होता है; चाहे वे पवित्र त्यागमय प्रेमस्रोत में बहते हुए सीधे ही यहाँ पहुँच जायँ अथवा उपर्युक्त ज्ञान-राज्य में ज्ञान प्राप्त होने के अनन्तर किसी महान कारण से इस सर्वविलक्षण महाभाव रूप परम दुर्लभ राज्य में प्रवेश प्राप्त करें। इस भावराज्य में नित्य-निरन्तर भाव मय सच्चिदानन्दघन दिव्य प्रेम रस-स्वरूप श्रीराधा-कृष्ण का भाव मय नित्य लीला-विहार होता रहता है। गोपी-प्रेम की उच्च स्थिति पर पहुँचे हुए गोपी हृदय महापुरुष तथा श्रीराधा की कायव्यूहरूपा नित्यसिद्धा तथा विविध साधनों द्वारा यहाँ तक पहुँची हुई अन्यान्य गोपांगनाओं का उनमें नित्य सेवा-सहयोग रहता है। इसी को ‘गो-लोक’ या ‘नित्य प्रेम धाम’ भी कहते हैं। यह ‘भावराज्य’ ज्ञानराज्य से आगे का या उससे उच्च स्तर पर स्थित है। प्रेमी महानुभावों ने तो भगवत्कृपा से, ‘स्वयं भगवान’ श्रीकृष्ण के द्वारा सखा-भक्त अर्जुन के प्रति उपदिष्ट गीता में भी इसके संकेत प्राप्त किये हैं। कुछ उदाहरण देखिये- तेरहवें अध्याय में भगवान ने क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, ज्ञान-ज्ञेय के स्वरूप का वर्णन किया है। उसमें सर्वत्र व्याप्त सगुण निराकार तथा ज्ञानगम्य ब्रह्मस्वरूप का उपदेश करने के बाद वे कहते हैं-
“इस प्रकार क्षेत्र, ज्ञान, ज्ञेय संक्षेप में कहे गये हैं। इन क्षेत्र-ज्ञान-ज्ञेय को जानकर मेरा भक्त ‘मेरे भाव’ को प्राप्त होता है।”
|
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ 13। 18
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज