श्रीश्रीराधा के परम भाव-राज्य की एक झाँकी
सं. 2016 वि. के श्रीराधाष्टमी-महोत्सव पर प्रवचन
साधन-जगत में प्रधानतया उत्तरोत्तर विलक्षण चार राज्य हैं -
- कर्मराज्य
- भावराज्य
- ज्ञानराज्य
- महान परम भावराज्य। इसी के अनुसार साधकों के स्वरूप हैं, साध्य-स्वरूप हैं और दिव्य लोकादि हैं। कर्मप्रवण पुरुष कर्मराज्य में श्रौत-स्मार्त्त वैध कर्मों के द्वारा कर्म-साधन करते हैं। सकाम भाव होने पर वे स्वर्गादि पुनरावर्ती लोकों में जाते हैं और सर्वथा कामना रहित होने पर ‘नैष्कर्म्यसिद्धि’ को प्राप्त होते हैं। इनके तत्त्व ज्ञान की स्थिति में लोक की कल्पना नहीं है और कर्म तत्त्व की दृष्टि से सृजन-पालन-संहार करने वाले सर्वशक्तिमान सर्वनियन्ता ईश्वर के सांनिध्य में इनका कर्म जगत में कार्य चलता रहता है। इनमें कोई-कोई साधक सिद्धि प्राप्त करके ब्रह्मा के पद तक पहुँच जाते हैं और मूल परम तत्त्व के अंशावतार विभिन्न ब्रह्माण्डाधिपति सृजनकर्ता ब्रह्मा, पालन कर्ता विष्णु तथा संहार कर्ता रुद्रों में कहीं ‘ब्रह्मा’ का अधिकार प्राप्त कर सकते हैं।
इससे उच्चतर या आगे ‘भावराज्य’ है, वहाँ कर्म के साथ केवल निष्काम भाव की प्रधानता न होकर ईश्वर-प्रीति साधक भक्ति की प्रधानता होती है। भावुक पुरुष इस भावराज्य के क्षेत्र में भाव साधना के द्वारा अपने भावानुरूप इष्टदेव परमैश्वर्य-सम्पन्न, स्वशक्तियुक्त भगवत्स्वरूपों के सांनिध्य और उनके दिव्य लोकों को प्राप्त करते हैं। इनकी साधना का फल दिव्य भगवल्लोकों की प्राप्ति है। ये भी सर्वथा मायामुक्त होते हैं।
इससे आगे ज्ञान राज्य है। इसमें विचार-प्रधान पुरुष साधन-चतुष्टयादि के द्वारा महावाक्यों का अनुसरण करके विशुद्ध आत्म स्वरूप में परिनिष्ठित होते हैं। इनके प्राणों का उत्क्रमण नहीं होता। ये ब्रह्मस्वरूप हो जाते हैं या ब्रह्मसायुज्य को प्राप्त करते हैं।
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