श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
चतुर्थ अध्याय में भगवान कहते हैं-
“बहुत-से रोग-भय-क्रोध से रहित, ज्ञानरूप तप से पवित्र, मुझमें तन्मय, मेरे आश्रित पुरुष ‘मेरे भाव’ को प्राप्त हो चुके हैं।” अठारहवें अध्याय में स्पष्ट शब्दों में भगवान ने कहा है-
‘ब्रह्मभूत होकर प्रसन्नात्मा पुरुष न तो शोक करता है न आकांक्षा करता है अर्थात ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त होकर शोक-कामना से रहित प्रसन्नात्मा- आनन्दस्वरूप हो जाता है तथा सब भूतों में सम हो जाता है; तब वह मेरी पराभक्ति को प्राप्त करता है। उस भक्ति से यानी परा ज्ञाननिष्ठा से जैसा जो कुछ मैं हूँ, उस मुझको तत्त्व से जानकर तदनन्तर मुझमें प्रवेश कर जाता है।’ अभिप्राय यह कि ब्रह्मस्वरूप समदर्शी शोकाकांक्षारहित उच्च स्थिति पर पहुँच जाने पर भी भगवान के ‘यः यावान’ स्वरूप का ज्ञान और उस भावराज्य में प्रवेश शेष रह जाता है, जो पराभक्ति- प्रेमाभक्ति से ही सिद्ध होता है। |
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