श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
एक लालसाबहुजन्मव्यापी तपस्या और श्रीभगवान की उपासना के प्रभाव से हृदय के सारे पाप नष्ट होने भगवान की प्राप्ति के लिये तीव्र इच्छा उत्पन्न होती है। तीव्र इच्छा उत्पन्न होने पर मनुष्य को इसी जीवन में भगवान की प्राप्ति हो जाती है- ‘यस्तु तीव्रमुमुक्षः स्यात् स जीवन्नेव मुच्येत।’ इस तीव्र शुभेच्छा के उदय होने पर उसे दूसरी कोई भी बात नहीं सुहाती; जिस उपाय से उसे अपने प्यारे का मिलन सम्भव दीखता है, वह लोक-परलोक किसी की कुछ भी परवा न करके उसी उपाय में लग जाता है। प्रिय-मिलन की उत्कण्ठा उसे उन्मत्त बना देती है। प्रिय की प्राप्ति के लिये वह तन-मन-धन-कर्म-सभी का उत्सर्ग करने को प्रस्तुत रहता है। प्रियतम की तुलना में उसकी दृष्टि से सभी कुछ तुच्छ हो जाता है, वह अपने-आप को प्रिय मिलनेच्छा पर न्यौछावर कर डालता है। ऐसे भक्तों का वर्णन करते हुए सत्पुरुष कहते हैं-
प्रियतम के लिय प्राणों को तो हथेली पर लिये घूमते हैं ऐसे प्रेमी साधक! उनके प्राणों की सम्पूर्ण व्याकुलता, अनादिकाल से लेकर अब तक की समस्त इच्छाएँ उस एक ही प्रियतम को अपना लक्ष्य बना लेती हैं। प्रियतम को शीघ्र पाने के लिये उसके प्राण उड़ने लगते हैं। एक सज्जन ने कहा है कि ‘जैसे बाँध के टूट जाने पर जलप्लावन का प्रवाह बड़े वेग से बहकर सारे प्रान्त के गाँवों को बहा ले जाता है, वैसे ही विषय-तृष्णा का बाँध टूट जाने पर प्राणों में भगवत्प्रेम के जिस प्रबल उन्मत्त वेग का संचार होता है, वह सारे बन्धनों को बलात् तत्काल ही तोड़ डालता है। प्रणयी के अभिसार में दौड़ने वाली प्रणयिनी की तरह उसे रोकने में किसी भी सांसारिक प्रलोभन की प्रबल शक्ति समर्थ नहीं होती, उस समय वह होता है अनन्त का यात्री- अनन्त परमानन्द-सिन्धु-संगम का पूर्ण प्रयास! |
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