श्रीचैतन्य महाप्रभु का दिव्य प्रेम 3

श्रीचैतन्य महाप्रभु का दिव्य प्रेम

दास्यप्रेम-भक्ति के महत्त्व का वर्णन उन्होंने इस प्रकार किया है-

दास्य सुखरू सुख नाहिं, सकल सुख तुच्छा ताहिं।
कोटिए ब्रह्म सुख जे हिय, दास्य भाव तू समनोहि।
जे लख्मी अति प्रिया होई, दास्य सुखकू से भागई।
विधि नारद भव पुण, आवर सुक सनातन।
सकले दास्य भवे भोग, आपने अनन्त ईश्वर।
दास्य सुखरे मोल होई, सकल भाव पासोरई।
राधा रुकमणी आदि लेते, दास्य जे भागन्ति निरते।[1]

अर्थात दास्यभक्ति के समान और कोई सुख नहीं, इसकी तुलना में अन्य सुख व्यर्थ हैं। करोड़ों ब्रह्म-सुख दास्यभाव के सुख के सामने तुच्छ हैं। जो लक्ष्मी अति प्रिया होती हैं, वे दास्यभक्ति को माँगती हैं। इसी तरह नारद, शुक और सनातन आदि सभी दास्यप्रेम में विभोर रहते हुए अपने-आप में अनन्त ईश्वर हैं। राधा, रुक्मिणी आदि सभी सर्वदा दास्यप्रेम की याचना करती हैं।

श्रीचैतन्यमहाप्रभु ने सारे संसार के लिये प्रेम-शब्दाभिधेय ज्योति जलायी। संसार में प्रेय और श्रेय नामक दो मार्ग हैं। इनमें प्रेय भौतिक और श्रेय आध्यात्मिक पथ का अनुसरण करता है। प्रेय का अर्थ है-स्त्री, पुत्र, धन, यश आदि इस लोक के तथा स्वर्गलोक के समस्त प्राकृत सुख-भोगों की सामग्रियों के प्राप्ति का मार्ग तथा श्रेय का अर्थ है- इन भौतिक सुख-भोगों की सामग्रियों से उदासीन रहकर नित्यानन्दस्वरूप परब्रह्म पुरुषोत्तम की प्रीति के लिये उद्योग करना। इसीलिये श्रीचैतन्यमहाप्रभु ने संकीर्तन के द्वारा प्रेय एवं श्रेय दोनों मार्गों को एक साथ सामन्वित करके चलने को कहा है।

वास्तव में जब तक जगत में भगवन्नाम-संकीर्तन रहेगा, तब तक श्रीचैतन्य महाप्रभु का प्रेम-शरीर ज्यों-का-त्यों बना रहेगा और भक्तगण गाते रहेंगे-

श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानन्द। हरे कृष्ण रहे राम राधे गोविन्द।

ऐसे दिव्य प्रेमावतार गौरांग चैतन्यमहाप्रभु की संकीर्तन लीला का आज भी सर्वत्र वितरण हो रहा है। भक्तगण प्रभुनाम-संकीर्तन कर रहे हैं। आज के युग में इनके दिव्य प्रेम की ज्योति पूर्णरूप से जले तभी विश्व-बन्धुत्व की भावना जाग सकती है। हम कीर्तन को अपने जीवन का लक्ष्य बनायें, यही उनकी सच्ची स्मृति होगी।

इस तरह हम देखते हैं कि श्रीचैतन्यमहाप्रभु जैसे भक्तों की महिमा अपरम्पार है। इनका जीवन-दर्शन हमें पतन के गर्त में गिरने से बचा सकता है। इनका पावन चरित्र पतित मानव को कल्याण के मार्ग पर ले जाने वाला है।

प्रो. श्रीलालमोहरजी उपाध्याय


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्री श्री चैतन्य चरितामृत

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