श्रीचैतन्य महाप्रभु का दिव्य प्रेम
श्रीचैतन्यमहाप्रभु अपने को संसारी जीव मानते हुए श्रीकृष्ण से शुद्ध भक्ति की प्रार्थना इस प्रकार करते हैं-
धन जन नाहिं माँगो कविता सुन्दरी।
शुद्ध भक्ति देह मोरे कृष्ण कृपा करि।।
अति दैन्य पुनः माँगो दास्य भक्ति दाना।
आपना के करे संसारी जीवन अभिमाने।।[1]
श्रीचैतन्यमहाप्रभु ने सुप्तप्राय मानव-जाति को प्रेम से भक्ति पथ दिखलाकर पुनः जागृति प्रदान की-
जो सिद्ध जोगी मुनी ऋषि, सकले गौर प्रेमे रसि।
आनन्द ऐ तिनि भूवन, गोर प्रेमरे होई मगन।
हाँ तक कीर्तन ली प्यारे, वृक्षादि पशु पक्षी खरे।
प्रेम रसरे रसिजाई, पाषाण तरल हुअई।
जीव वाकतेक मातर, रसिब नाहिं से भवन।
यकल जीवक उद्धार, कारणे गौर अवतार।[1]
श्रीगौरांग चैतन्यमहाप्रभु कीर्तन करते हुए वृन्दावन जा रहे हैं। वे अरण्यवासी सिंह, हस्ती, मृग और पक्षियों तक को श्रीकृष्ण के प्रेम में उन्मत्त करते हुए एवं उनके मुख से श्रीहरि के सुमधुर नामों का उच्चारण कराते हुए उन्हें भी अपने साथ ही नृत्य कराते जा रहे हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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