प्रेम दीवानी मीरा - खोल मिली तन गाती
कारण स्पष्ट है, वह कहती है - ‘सखी म्हारो कानूड़ो कलेजे की कोर।’ कनौडे कन्हैया की सेवा, पूजा, आराधना में सतत संलग्न रहती हुई भी मीरा का प्रधान स्वर था - ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।।’ ‘जाके सिर मोर मुगट मेरो पति सोई।’ का प्रधान स्वर कभी मन्द नहीं पड़ता। सच्ची सेविका की भाँति अतिशय मधुर भाव से वह मनमोहन मुरली वाले की पूजा करती थी।
भगवान ही उसके सब कुछ थे, किसी और की आस न करती थी। मीरा मस्ती में आ करके आँसू भी बहाया करती थी।
उत्तम पदार्थ बना श्रद्धा से वह भोग लगाया करती थी। इतना ही नहीं - ‘इकतारा सुन्दर हाथ में ले गिरधर गुण गाया करती थी’-
- हे री मैं तो दरद दिवाणी मेरो दरद न जाणै कोय।
- घायल की गति घायल जाणै जो कोइ घायल होय।
- दरद की मारी बन-बन डोलूँ बैद मिल्या नहिं कोय।
- मीरा की प्रभु पीर मिटेगी जद बैद साँवलियाँ होय।।
नीरस संसारी स्वार्थी जीव घायल जिगर की वेदना, कसक एवं दर्द के तल स्पर्शी तरानों को भला कैसे समझ सकता है। सचमुच मीरा के लिये तो साँवले-सलोने, कारे-कजरारे श्यामघन घनश्याम ही एक मात्र मर्मी वैद्य हैं, जो बहिरंग और अन्तरंग दोनों पीड़ाओं को स्पर्श नहीं, दर्शन देकर शान्त कर सकता है; क्योंकि मीरा का कथन है-
- एक मोहन ही मेरा घर बार भी आराम भी।
- मेरी दुनियाँ की सुबह और मेरे जग की शाम भी।।
- राज औ सरताज मोहन के सिवा कोई नहीं।
- वैद्य मेरे रोग का मोहन सिवा कोई नहीं।।
धन्य है मीरा का ‘परम भाव’ अपने मोर-मुकुट वाले के प्रति।
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