प्रेम दीवानी मीरा 2

प्रेम दीवानी मीरा - खोल मिली तन गाती


भक्ति निसान बजाय के काहूँते नाहिन लजी।
लोकलाज कुल श्रृंखला तजि मीराँ गिरिधर भजी।।

सचमुच ‘यथा व्रजगोपिकानाम्।’ की अर्थ व्यञ्जना के अनुरूप भक्ति-साहित्य में एकरस प्रेमाद्वैत का अविरल प्रवाह प्रवाहित करने वाला कोई दिखता नहीं, चाहे वह प्रेम-प्रवाह संयोग का हो या वियोग का। लेकिन भक्ति के स्वच्छ निर्मल पथ पर मीरा निश्चय ही मीरा है। तभी तो श्रीकृष्ण भक्तिधारा में प्रसाद स्वरूप मिली मीरा की पदावली का वर्ण-वर्ण है सुधि का दंशन, चरन-चरन है आह।

मीरा की वाणी में जो विलक्षण दर्द के तराने उपलब्ध हैं, उसका एक मात्र कारण है - गिरिधर गोपाल के प्रति उसकी अनन्यासक्तिजन्य प्रेमातुर अन्तरात्मा के उत्कट उद्गार। उद्दाम निर्झरिणी के सदृश मीरा के कलण्ठ से अनायास ही तीव्र प्रेमानुभूजितन्य मधुर भावोन्मादन का मञ्जुगान नहीं फूट पड़ा है, बल्कि वह तो ‘प्रीति पुरातन लखइ न कोई’ का सहचर है-
आली रे मेरे नैणा बाण पड़ी।।
चित्त चढ़ो मेरे माधुरी मूरत, उर बिच आन अड़ी।

अर्थात मीरा के हृदय में पूर्व जीवन से ही शाश्वत प्रेम की ज्योति जल रही थी। वही प्रेम साधना की गरिमा में तपकर मीरा के जीवन दाता, जीवन सर्वस्व श्रीकृष्ण के साथ विविध रूपों में मिलन करने लगा। परंतु ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।। जाके सिर मोर मुगट मेरो पति सोई।’ - की अनन्यता अनवरत अक्षुण्ण रही। माता द्वारा श्याम सुन्दर की मूर्ति का बाल्यावस्था में पति रूप में बीजवपन का ही यह पुख्ता असर था कि वह मनोहर विग्रह मीरा का साजन बना रहा और जगत की सारी मूर्तियाँ मूक बन गयीं। सचमुच वह मूर्ति जिसे अपनाती है, उसके सामने से जगत की सारी मूर्तियाँ हटा लेती हैं; सारे बन्धन काट देती है। वह मूर्ति अपने प्रेमास्पद को अपनाती है - निरावरण एवं निरवगुण्ठित रूप में।

ऐसा हो भी क्यों न। मीरा का प्रियतम कोई प्रियतम कोई साधारण प्राणी है क्या? नहीं, वह तो साक्षात रस विग्रह प्रेम मूर्ति ही है। इसीलिये तो उस सरस श्रीविग्रह का अनुपम आश्वासन है स्वजनों के लिये -


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