प्रेम दीवानी मीरा

प्रेम दीवानी मीरा - खोल मिली तन गाती


मैं गिरधर रँग राती, सैयाँ मैं।।
पचरँग चोला पहर सखी री मैं झिरमिट रमवा जाती।
झिरमिटमाँ मोहि मोहन मिलियो खोल मिली तन गाती।।

जिस परम प्रेम मूर्ति सौन्दर्य सुधा सागर ‘रसो वै सः’ - की प्राप्ति हेतु न जाने कितने योगीश्वर, मुनीश्वर, ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी और विरागी आदि अपनी साधना की सुदृढ़ इमारत खड़ी करते रहे, पर शायद ही ‘खोल मिली तन गाती’ का अवसर प्राप्त कर पाये हों, मगर मोहन की मोहिनी के प्रति प्रेम दीवानी मीरा निरावरणा, निरावगुण्ठित होकर मिली अपने प्रेमास्पद से सिर्फ ढाई अक्षर के अमूल्य मूल्य पर।

मरुस्थल की मन्दाकिनी, मधुर रस की एकनिष्ठ साधिका, गिरिधर की दीवानी मीरा का नाम भक्ति-भारती की मधुमय धरोहर है। कृष्ण भक्ति की विरह वह्नि में विदग्ध व्यक्तित्व का नाम है मीरा। सच तो यह है कि सम्पूर्ण भक्ति काव्य में आराधना और उत्सर्ग, समर्पण तथा विसर्जन की अन्यतम मूर्ति कोई है तो वह है मीरा। उसके ऐकान्तिक प्रेमोन्माद में राजसीपन तिनके की तरह उड़ गया; कुल-मर्यादा ओस की तरह विलीन हो गयी; लोक-लज्जा की धूल उड़ गयी और अपने आराध्य को रिझाने के लगे - ‘पग घुँघरू बाँध मीरा नाची रे।।’ पैरों में पञ्च तत्त्व का घुँघरू बाँधकर जो ‘प्रकृति’ अनन्त काल से अनादि पुरुष को रिझाने के लिये नृत्य करती आ रही है, मानो मीरा उसी की साकार प्रतिमा थी। उसका वह पुरुष नाम रूप धारण करके श्रीवृन्दावन धाम में श्री लीला बिहारी मुरली धर बन गया था और मीरा उसके चरणों में आत्म समर्पण करने के लिये नाच रही थी - निर्भीक, निगूढ़ एवं निश्छल भाव से। आत्म समर्पण की जितनी प्रबल भावना मीरा में है, उतनी अन्य किसी में नहीं। मीरा की उपासना में तन्मयता, वेदना और हृदय की सच्ची पुकार है, जो जन-मन को आत्म विभोर कर देती है। जब प्रिय मिलन की, उसकी उत्कण्ठा का भावोद्रेक नृत्य की चञ्चल गति में अँट नहीं पाता था तो संगीत की तानों में फूट पड़ता था और जब प्रेम-विरह की उसकी मर्मान्तक पीड़ा संगीत की तानों में भी सँभाले नहीं सँभलती थी तो वह पुनः पुकार उठती थी - ‘श्रीगिरधर आगे नाचूँगी।’ श्री गिरिधर गोपाल की अनन्य उपासिका, प्रेमातिशयता की पीयूषवर्षी साधिका मीरा की अलौकिक प्रीति की अनुपमता श्री नाभादास के शब्दों में देखने योग्य है-
सदृस गोपिका प्रेम प्रगट कलिजुगहिं दिखायो।
निरअंकुस अति निडर रसिक जस रसना गायो।।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 409 |

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