श्रीनारायणीयम्
सप्तदशदशकम्
परंतु पिता उत्तानपाद स्त्री के वशीभूत थे और आप (की माया)- से उनका चित्त मोहाच्छन्न हो गया था, अतः वे देखते ही रह गये। तब कटुवचनों से अत्यंत आहत हुआ ध्रुव अपनी माता सुनीति के पास चला गया। सुनीति ने भी अपने बच्चे को बतलाया कि मनुष्यों के लिए अपनी कर्मगति से पार पाने के लिए एकमात्र आपका चरण ही शरण है।।3।।
कहते हैं, ध्रुव पाँच ही वर्ष का बालक था, तो भी उसमें क्षत्रियोचित स्वाभिमान भरा था। माता के वचनों को सुनकर उसने भी आपकी आराधना में ही अपने मन को निश्चित कर लिया। फिर तो वह नगर से बाहर निकल पड़ा। मार्ग में मिले हुए देवर्षि नारद से मंत्र मार्ग का उपदेश पाकर उसने मधुवन में जाकर तपस्या द्वारा आपकी आराधना आरम्भ की।।4।। |
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