श्रीनारायणीयम्
द्वादशदशकम्
उस समय आपके शरीर के कृष्ण लोहित रंग के रोएँ ऊपर उठकर कुछ-कुछ हिल रहे थे, भयंकर नासिका (थूथुन) अधोमुख हो गयी थी और पूँछ ऊपर को उठ रही थी। जिससे अनायास ही बादलों के टुकड़े-टुकड़े हो गये थे। तब आप अपने परिघूर्णमान नेत्रों द्वारा उन स्तवन करने वाले मुनियों को शीतलता (आनन्द) प्रदान करते हुए उस जल में विहार करने लगे।।7।।
तदनन्तर जो ग्राह-समूह से व्याप्त था, जिसमें तिमिलिंगल नामक महामत्स्यों का समुदाय इधर-उधर भ्रमण कर रहा था तथा (जल के क्षुब्ध होने के कारण) जिसकी तरंगमालाएँ मटमैली हो गयी थीं, उस जल के भीतर घुसकर आप अपने भयंकर निनाद से रसातल में स्थित जीवों को सर्वथा कम्पित करते हुए पृथ्वी की खोज करने लगे।।8।। |
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