श्रीनारायणीयम्
अष्टनवतितमदशकम्
भगवन्! एकमात्र आपको ही कुछ लोग जगत् का कारण, कुछ लोग शब्दब्रह्म, कुछ लोग कर्म, कुछ लोग परमाणु और कुछ लोग कालरूप से वर्णन करते हैं और सर्वात्मक होने के कारण आपके लिए ऐसी कल्पना सर्वथा उपयुक्त भी है। परंतु वेदान्त जिसका पुरुष, परम शुद्ध चैतन्य और सर्वानुगत आत्मरूप से अभिधान करता है, वही ब्रह्म है। श्रीकृष्ण वह ब्रह्म आप ही हैं, आप अपने ईक्षणमात्र से मूल प्रकृति में विकार (क्षोभ) उत्पन्न कर देते हैं। आपको प्रणाम है।।5।।
जो अविद्या न सती, न असती है और न सदसती ही है, अतः जिसके स्वरूप का वर्णन करना अशक्य है, जो रज्जु में सर्प की भ्रांति सदृश सकल जगत् को अवभासित करने वाला रूप धारण करती है, वही अविद्या जिसकी कृपा के प्रवाह में पड़ने पर वेदान्त वाक्यों द्वारा विद्यारूपिणी होकर संसाररूपी वन को तत्काल काट डालने के लिए फरसे का सा काम करती है, ऐसे आपको अभिवादन है।।6।। |
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