श्रीनारायणीयम्
षण्णवतितमदशकम्
भगवन्! इस मृत्युलोक में पुण्य के फलस्वरूप ज्ञान तथा आपकी भक्ति को मनुष्य अनायास प्राप्त हो जाते हैं। इसी कारण स्वर्गवासी तथा नरक निवासी सभी लोग मृत्युलोग में ही जन्म ग्रहण करने की स्पृहा करते हैं। उसी मर्त्यलोक में दैववश मैं भव सागर से पार होने के लिए नौकास्वरूप इस मर्त्यदेह में प्रविष्ट हुआ हूँ। अब आप मुझे कर्णधार स्वरूप गुरु की प्राप्ति कराकर स्वयं अनुकूल वायु का सा आचरण करते हुए इस भवसागर से पार कर दीजिए।।5।।
अयि भगवन्! केवल ज्ञान पर लुभाये हुए लोग श्रुतियों तथा युक्तियों द्वारा अव्यक्त ब्रह्म की खोज करते हुए अत्यंत क्लेश सहते हैं, तब कहीं बहुत से जन्मों के अंत में ही उन्हें सिद्धि की प्राप्ति होती है और कर्मयोग भी परम फल-मोक्ष-प्राप्ति के विषय में बहुत दूर है। केवल यह भक्तियोग ही ऐसा है, जो आरंभ से मनोहर तथा शीघ्र की आपकी प्राप्ति करा देने वाला है; अतः मेरे हृदय में उसी की वृद्धि होती रहे।।6।। |
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