श्रीनारायणीयम्
त्रिनवतितमदशकम्
पवनपुराधीश! हाय! हाय! जिस शरीर में प्रेम होने के कारण लोग गेह, वित्त, कलत्रादि में आसक्त होकर उन्हीं के योगक्षेम की चिन्ता में ग्रस्त रहते हैं, जिससे उन्हें आपके चरणों की विस्मृति हो जाती है; मेरे उस देह की ममता को छुड़ा दीजिए। वही यह शरीर प्राण निकल जाने पर अग्नि अथवा कुत्ते का भोजन हो जाता है तथा जीवित रहने पर आँख, कान, त्वचा, जिह्वा आदि इंद्रियाँ इसे परवश की भाँति इधर-उधर अपने-अपने विषयों की ओर खींचती रहती हैं। इनमें से कोई भी इसे आपके चरण कमल की ओर प्रेरित नहीं करती।।9।।
कमलनयन! यदि इस समय पुनः इस देह-मोह का परित्याग करना दुष्कर है तो इस जन्म में मेरे समस्त रोगों का विनाश करके अपने चरण कमल में मेरी भक्ति सुदृढ़ कर दीजिए। निश्चय ही यह मुक्तिदायक ब्राह्मण-शरीर मुझे अनेकों जन्मों के पश्चात् प्राप्त हुआ है। हाय! हाय! इसे क्षुद्र विषयभोगों में मत लगाइये, मत लगाइये। मारुतेश! मेरी रक्षा कीजिए।।10।।
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