श्रीनारायणीयम्
षडशीतितमदशकम्
युद्धोद्योग के अवसर पर सैन्य-संगठन के समय अर्जुन ने अकेले आपको ही मन्त्रणार्थ वरण किया, तब आपने दुर्योधन को अपनी यादवी सेना प्रदान की। पुनः पाण्डवों की कार्य सिद्धि के लिए आप दूत बनकर हस्तिनापुर गये। वहाँ भीष्म, द्रोणाचार्य आदि ने आपके कथन को स्वीकार किया, परंतु दुर्योधन ने उसे अनसुना कर दिया। तब आपने मुनियों की उस सभा में अपना विश्वरूप प्रकट किया और हस्तिनापुर को क्षुब्ध करके आप लौट आये।।5।।
कृष्ण! आपने अर्जुन का सारथ्य स्वीकार किया। तत्पश्चात् युद्ध के मुहाने पर बन्धु-वधरूप कार्य के उपस्थित होने पर अर्जुन को दया उत्पन्न हो गयी। तब उस वीर को खिन्न एवं युद्ध से विमुख हुआ देखकर आप बोले- ‘अयि सखे! यह क्या बात है? अरे! यह आत्मा तो सदा अद्वितीय एवं अविनाशी है। भला, यहाँ कौन मारा जाता है? और कौन मारता है? अतः इस विषय में वध की आशंका को त्यागकर आत्मा को मुझमें समर्पित करके क्षात्रधर्मसम्मत युद्ध में लग जाओ।’- यों समझाते हुए आपने अपना विश्वरूप दिखलाकर अर्जुन के मोह को भंग किया- उन्हें स्वाभाविक स्थिति में ले आये।।6।। |
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