श्रीनारायणीयम्
अष्टासप्ततितमदशकम्
बहुत दिनों से आपमें अनुराग रखने वाली बालिका रुक्मिणी सहसा अपना मनोरथ भंग होते देखकर व्याकुल हो उठी। तब उसने कुटिल काम (मिलने की अभिलाषा)- द्वारा सृष्ट अपनी व्याकुलता को आपसे निवेदन करने के लिए एक ब्राह्मण को आपके पास भेजा।।4।।
तब वे ब्राह्मण कुमार भी आपके उस नगर में, जिसमें दुर्जनों का प्रवेश पाना कठिन है, शीघ्र ही जा पहुँचे। वहाँ भवताप को हरण करने वाले स्वयं आप द्वारा सादर पूजित होने से उन्हें परम आनन्द प्राप्त हुआ।।5।।
तत्पश्चात् वे आपसे कहने लगे- ‘भगवन्! कुण्डिन नगर में राजकुमारी रुक्मिणी शोभा पा रही है, वह आपके लिए ही उत्कण्ठित रहने वाली है; परंतु (उसके मनोरथ में विघ्न पड़ने के कारण) वह अधीर हो उठी है। इसी कारण उसने मुझे आपके पास भेजा है’।।6।। |
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