श्रीनारायणीयम्
सप्तपञ्चाशत्तमदशकम्
‘यह राक्षस है’- यों जानते हुए भी आपने अनजान की तरह उसके साथ मित्रता कर ली। तब उस वट के निकट द्वन्द्वयुद्धकुशल दो-दो गोपों में निश्चित परस्पर द्वन्द्वयुद्ध प्रारम्भ करवाया।।4।।
उस समय आपने गोपों को दो दलों में बाँट दिया। एक दल के नायक बलराम जी तथा दूसरे दल के नायक आप हुए। भगवन्! प्रलम्बासुर पहले से ही आपके बल से डरा हुआ था, अतः उसने आपके ही दल में सम्मिलित होना चाहा, तब आपने उसे स्वीकृति दे दी।।5।।
उस युद्ध में यह शर्त रखी गयी कि पराजित दल विजेता दल को अपनी पीठ पर चढ़ाकर नियत स्थान तक ले चलेगा। तब पराजित हुए आप अपनी भक्त-पराधीनता को प्रकट करते हुए अपने अतिशय प्रेमी श्रीदामा को पीठ पर चढ़ाकर ले चले।।6।। |
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