कृष्णांक
प्रेमावतार श्रीकृष्ण
लोग इससे यह न समझें कि भगवान भी झूठ बोलते थे। ऐसा करने में उनका तो केवल यही लक्ष्य था कि मेरे प्यारे भक्त मेरे प्रभाव-ज्ञान से वंचित न रहें। भगवान अपने प्रादुर्भावकाल में माता देवकी को तो अपना दिव्य रूप दिखलाकर कृतार्थ कर चुके थे, किन्तु यशोदा की बारी तो आज ही थी। वह इस मौके पर क्यों चूकने लगे ? उनका तो अवतार ही इसलिये था कि भक्त उनके दिव्य रूप का दर्शन कर परम पद प्राप्त कर सके। उस दिन भगवान माता से भयभीत होने के बजाय जैसे अपनी करतूत से उसे ही डराकर आप बच गये थे, इसी प्रकार एक दिन एक गोपी के दाव में आकर भी निकल गये, इसका वर्णन एक कवि ने बड़ी ही मार्मिकता से किया है – कस्त्वं कृष्णमवेहि मां किमिह ते मन्मन्दिराशंकया बात क्या थी, एक दिन श्रीकृष्णचन्द्र बडे़ सबेरे ही उठे और किसी पडोसन गोपिका के घर में जा घुसे। वहाँ अपने साथी ग्वालबालों को जगाकर चुपके से हांडी उघारी और लगे माखन निकालने। इतने में ही गोपी आ गयी और बोली ‘तू कौन है ? भगवान बोले– ‘मैं कृष्ण हूँ। पूछा– यहाँ क्यों आया है ? अपना घर समझकर। ठीक है, परन्तु माखन के पात्र में हाथ क्यों डाला ? बोले– ‘इसमें चींटी पड़ गयी थी, उसे निकाल रहा था’। गोपी ने फिर पूछा– ‘अच्छा तो सोये हुए बालकों को क्यों जगाया ?’ भगवान झट से बोल उठे, ‘आज बछडे़ किस आरे चरने जायँगे, यह पूछने के लिये’। अब उस बेचारी ग्रामीण गोपी की बुद्धि और आगे न चली, उसे कान्हा की वकालत के आगे चुप होना पड़ा। धन्य हैं वे व्रजांगनाएं, जिन्हें भगवान के ये मधुररसपूर्ण विचित्र चरित्र प्रत्यक्ष देखने को मिले। ये सारी बातें यशोदाजी के कानों तक भी पहुँच जाया करती थी, इसलिये उन्होंने सोचा कि यदि यह पढ़ने लगे तो सम्भव है इसका यह नटखटपन दूर हो जाय और गोपियों का रोज-रोज का उलाहना न सुनना पड़े। अत: एक दिन वे बोलीं– कृष्ण त्वं पठ किं पठामि ननु रे शास्त्रं किमु ज्ञायते ‘कृष्ण ! तू पढ़ा कर’। कृष्ण ने पूछा ‘क्या पढ़ा करूँ ?’ माता बोली, ‘शास्त्र’। इस पर कृष्ण ने पूछा ‘उससे क्या होगा ?’ बोली– ‘तत्वज्ञान’। पूछा ‘किस तत्व का ज्ञान ?’ ‘व्यापक ब्रह्म के तत्व का’। कृष्ण ने पूछा ‘वह व्यापक ब्रह्म कौन है ? माता ने कहा ‘वह त्रिभुवनपति है’। पूछा– ‘उसके जानने से क्या होगा?’ ‘उससे ज्ञान, भक्ति और वैराग्य प्राप्त होंगे’। ‘इनसे क्या लाभ होगा ?’ ‘तेर मुक्ति हो जायी’। इस श्रीकृष्ण ने कहा ‘मुझे उसकी इच्छा नहीं है, मुझे तो दही (माखन) आदि ही चाहिये’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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