कृष्णांक
प्रेमावतार श्रीकृष्ण
यह सुनकर माता ने कहा यदि दूध, दही और माखन से ही तुझे प्रेम है तो – दुग्धं घृतं दधि मदीयगृहेअपि ‘हे कृष्ण ! दूध, दही और माखन तो तेरी तृप्ति के लिये अपने घर में भी बहुतेरा है। उसे तू स्वयं खा और अपने साथी ग्वाल बालों को भी खूब खिला, मैं तुझे रोकती थोडे़ ही हूँ, परन्तु बेटा ! न जाने इस चोरी की बानको तू क्यों नहीं छोड़ता ?’ परन्तु माता को यह मालूम न था कि यह बड़ा नामी चोर है, चोरी करना ही इसका पेशा है। इससे लुटे हुए किसी भक्त कवि ने कहा है – प्रणतदुरितचौर: पूतनाप्राणचौर: ‘भक्तों के पापों को, पूतना के प्राणों को, गोपांगनाओं के आभूषण और वस्त्रों को तथा अपना दर्शन करने वाले सज्जनों के नेत्र और मनों को चुराने वाला कोई कृष्ण नामक चोर मेरे मन को चुराये लेता है’। एक दिन की बात है जबकि सब दासियां अपने-अपने काम में लगी हुई थीं, श्रीनन्दरानीजी स्वयं दही बिलोने बैठ गयी। प्रात:काल का अति सुहावना समय था, अत: दही बिलोने के साथ ही वे गाने में भी तल्लीन हो गयीं। इसी समय लाला कृष्ण की आंखें खुलीं और वह भूख से व्याकुल होकर रोने लगे। किन्तु मथानी के गम्भीर शब्द के कारण मैया को इसका कुछ भी पता न चला। अन्त में सरकार स्वयं सरकते हुए मां के पास पहुँचे और उसकी मथानी को पकडकर खडे` हो गये। तब मैया ने उन्हें प्रेमपूर्वक गोदी में लिटाकर अपना दूध झरता हुआ स्तन उनके मुख में दे दिया। इसी समय अकस्मात अग्नि पर रखा हुआ दूध उबलने लगा। यह देखकर ‘गांव की स्त्रियों को पूत से भी दूध अधिक प्यारा होता है’ इस कहावत को चरितार्थ करती हुई श्रीयशोदा जी झटपट कन्हैया को धरती पर बैठाकर दौडीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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