श्रीकृष्णांक
अय प्यारे कृष्ण !
अहा ! कैसा मंजुल मधुर नाम है तुम्हारा ! प्यारे कृष्ण ! तुम कैसे मधुर हो, मधुरातिमधुर हो ! तुम में कितना मधुमय अनन्त आकर्षण है ! अपने मृदुल माधुर्य की ओर, ओ मधुरतम ! चर और अचर जगत को तुम सदा खींचते ही रहते हो। तुम्हारे मधुर आकर्षण को क्या कहें ? मीठे प्यार के रस में विभोर यहाँ का जर्रा-जर्रा तक तुम्हारी अनोखी मधुरता की तरु कैसा बरबस खिंचता चला जा रहा है, अय मेरे कृष्ण मोहन!
टुक, मुझे भी अपनी तरफ खींच लो न, अय खींचने वाले सांवले कृष्ण ! मेरे अन्दरूनी तन में तुम्हारे मधुमय प्रेम की ओर दौड़ जाने वाला क्या आज एक भी आह भरा जरा नहीं रहा ? हां, कहाँ है मेरे अदम्य अन्तस्तल में वह तुम्हारे प्रेम की प्यारी पीर, वह तुम्हारे इश्क की मीठी कसक, ठीक ही तो है। हाय ! अधम अहंकार ने मेरे अन्दर जगह ही नहीं छोड़ी है, तुम्हारी उस प्यारी परी या उस मीठी कसक के लिये। पर, कृष्ण ! तुम तो ‘आकर्षक’ हो न ? तो क्या मेरे इस ओछे अहंकार को तुम अपनी ओर आकर्षित न कर सकोगे ? ओ खींचने वाले मोहन ! मेरी खुदी को भी खींच लो आज अपने कमल-जैसे चरणों के पास। मेरी खुदी को ही प्रेम की प्यारी पीर की वह सुन्दर-सलोनी सूरत दिखा दो आज अपने कदमों के अनोखे आईने में। तुम्हारा एक ललित नाम ‘लीलामय’ भी है न ? तो फिर मुझ अहंकारी पतितपापी के उद्धार के लिये यह भी एक अनोखी सी लीला रच डालो आज। और फिर, तुम्हारी मुनि-मन-मोहिनी मुरली के वे मीठे-मीठे सुर ! हां, जिन सरस सुरों की मधुरा मदिरा से उन विरह-विह्वला व्रजांगनाओं को बेसुध करके उस चांदनी रात को कालिन्दजा के कलित कूल पर उनके आगे अपना परम गोपनीय दिव्य-प्रेम प्रकट किया था। प्रकृति कैसी पुलकित हो रही थी उस अनुराग रंजिता रजनी में, रसिक श्याम ! जब तुमने अपनी अलबेली बांसुरी के सरस सुरों से एक उन्मादी मधु-वर्षा की थी ! ब्रह्माण्ड का एक-एक अणु-परमाणु, अहा ! कैसा उछलता और इठलाता था, कृष्ण तुम्हारे मधुमय प्रेम के प्यारे प्रवाह में ? तुम्हारी वंशी के वे आकर्षक स्वर अब भी रस-विलोकित कर रहे हैं हमारी आत्मा के असीम अगाध सागर को। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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