श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण-चरित्र की समीक्षा
जो पुरुष पूर्णावस्था को पहुँच चुके हैं, वे अपने ही प्रकाश से देदीप्यमान रहते हैं, किन्तु जो पुरुष उस अवस्था को नहीं पहँचे हैं, वे यदि किसी मुक्त पुरुष के प्रकाश को लेकर चमकने की कोशिश करें, तो वे निश्चय ही उस प्रकाश से भस्म हो जायँगे। उन्हें चाहिये कि वे अपने को क्रमशः इतना समुत्रत बनावें कि उनके अन्दर जो स्वाभाविक प्रकाश है, वह प्रदीप्त हो जाय। फिर वे अपने शरीर के द्वारा परमात्मा की इच्छा को पूर्ण करने में समर्थ हो सकेंगे। प्रेम और सहानुभूति से ही मनुष्य दूसरे के स्वरूप तथा गुणों को पहचान सकता है। श्रीकृष्ण का यथार्थ रूप जानने का सर्वोत्तम उपाय उनसे प्रेम करना तथा उनकी भक्ति करना ही है। मेंज के सामने बैठकर सिर पच्ची करने वाला शुष्क समालोचक उन्हें नहीं जान सकता। उन्हें यथार्थ में वह योगी ही जान सकता है, जो आध्यात्मिक चिन्तन और प्रेमपूर्वक ध्यान के द्वारा अपने आदर्श को प्राप्त करने की चेष्टा करता है। लखि जिन्ह लाल की मुसुकान । -भगवतरसिकजी
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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