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श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्णोपदिष्ट यज्ञ का रहस्य
श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार यज्ञ का अर्थ नि:स्वार्थ भाव से पूर्ण विवेकपूर्वक दूसरों की सेवा करना है। भगवान श्रीकृष्ण भगवद्गीता के ‘कर्मयोग’ नामक तीसरे अध्याय के नवें श्लोक में कहते हैं कि ‘यज्ञकर्म’ ही एक ऐसा कर्म है जिससे मनुष्य कर्म के बंधन में नहीं फंसता। कम्र का अर्थ काम है। यह कर्म किसी कामना को लेकर अर्थात धन की प्राप्ति, शारीरिक सुख अथवा आनंद की उपलब्धि के लिए हो सकता है। किन्तु यज्ञकर्म का अर्थ दूसरों की सेवा करने में, दूसरों को शांति, सुख एवं आनंद प्रदान करने में,उपदेश और आचरण द्वारा उन्हें ज्ञान प्राप्ति में सहायता देने में तथा मानवजाति को दिन-प्रतिदिन आत्मोन्नति के पथ पर अग्रसर होने के कार्य में मदद पहुँचाने में अपने आपको भुला देना है। इसीलिये भगवान ने अर्जुन को अनासक्त होकर नि:स्वार्थ भाव से अपने कर्तव्य का भलीभाँति पालन करने के लिए उपदेश दिया है।। भगवान ने कहा है- यज्ञार्थात्कर्मणोअनयत्र लोकोअन्यं कर्मबंधन । कर्मयोग (तीसरे अध्याय) के 11 से 15 श्लोकों में भगवान ने इस विषय का बड़ा अच्छा खुलासा किया हैञ सारे संसार का पालन अन्न से होता है, अन्न की उत्पत्ति और वृद्धि वर्षा, वायु तथा सूर्य के प्रकाश आदि से होती है। वर्षा, वायु तथा सूर्य आदि जिनके अधीन हैं वे दैवीशक्तियां अथवा देवतागण मनुष्यों के यज्ञ-कर्म से संतुष्ट और प्रसन्न होरक इन प्राकृतिक शक्तियों को नियमित करते हैं और इस प्रकार अन्न के अधिकार परिमाण में उत्पन्न होने में सहायता करते हैं, जिसकी बदौलत संसार में समस्त प्राणी सुख-चैन से रहते हैं, जिसका बदौलत संसार में समस्त प्राणी सुख-चैन से रहते हैं। यदि संसार में एक भी पुण्यात्मा मनुष्य हो तो केवल उसके लिए नियमित रुप से ठीक समय पर वर्षा हो सकती है। देवतागण अर्थात दैवीशक्तियां मनुष्यों से तभी प्रसन्न रहती है, जब वे दूसरों के हित के लिए कर्म करते हैं और तभी देवतालोग वर्षा, वायुद्ध तापादि को- जिनपर उनका पूर्ण अधिकार है- नियमित करने की कृपा करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भगवद्गीता 3।9
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