(लेखक – श्रीसुखराम जी चौबे ‘गुणाकर’)
(छप्पय)
वर्षा में ‘शशि’ ‘सूर्य्य’ आदि तक परदा गहते।
यों निशि में ‘कर्मण्य’, अकर्मी सदृश रहते।।
अन्धेरी अधरात, और अन्धेर मचाती।
कर अन्धे से हमें, हमी को चोर बनाती।।
कृष्ण भाद्रपद-अष्टमी, सबकी दादी-सी दिखी।
कृष्णचन्द्र ने इसी से, ‘जन्म–स्व-तिथि’ यह निशि रखी।।
कालिन्दी कल्लोल, करे कल कूलोंवाली।
बढा कालिमा रही, जहाँ प्रिय पंक्ति तमाली।।
त्यों कालों का काल, कालिया काला-काला।
कालदह में बसे, क्रूर काली कृतिवाला।।
सबसे कंस नृशंस की ब्रजमें कृति काली सुनी।
कृष्णचन्द्र ने इसी से, जन्म–भूमि ‘व्रज’ ही चुनी।।
गिरि गोवर्धन खडा, बड़ा दिग्गज-सा काला।
मानो बतला रहा, निशा में ‘काला-काला’।।
थे दुख से ज्यों मनुज, स्व-तन से काले प्यारे।
थे कृति से तें ‘दनुज, मनिल’ तन-मन से सारे।।
रक्षक ही भक्षक बने, नय की अति दुर्गति लखी।
तब प्रभुवर ने कृष्ण बन, निज प्रण की महिमा रखी।।
कृष्णचन्द्र का उदय, कला षोडश दिखलाता।
‘बन्दी-गृह’ से हुआ, अतुल उल्लास बढाता।।
‘कंस-तिमिर’ विध्वंस, हुआ जिससे अति सत्वर।
हुई सुखी व्रज-भूमि, ताप-तम रहा न तिल भर।।
धन्य भूमि, निशि, तिथि शुभे ! तुझसी तू पूज्या जँची।
कृष्णचन्द्र ने ‘गुणाकर’, जिसमें कल लीला रची।।