श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण-चरित्र
भगवान श्रीकृष्ण समदर्शी थे; और उनकी समदर्शिता की सीमा में केवल मनुष्य- समाज ही आता हो, सो बात नहीं;पशु-पक्षी, लता-वृक्ष आदि सभी के लिये उसमें स्थान था। उन्होंने गौओं की सेवा कर पशुओं में भी भगवान का वास दिखलाया। कदम्ब आदि वृक्षों के तले वन में स्थान था। उन्होंने गौओं की सेवा कर पशुओं में भी भगवान का वास दिखलाया। कदम्ब आदि वृक्षों के तले वन मे विहार कर, उद्धिज्ज-जगत को प्रतिष्ठा दी, कालिन्दी में किलोल कर नदियों की मर्यादा को बढा़या; और गोवर्धन-गिरि की पूजा करवाकर स्थावर-जगत के महत्त्व का प्रदर्शित किया। भगवान श्रीकृष्ण के जीवन में सेवा-धर्म मुख्य रहा है। उनकी गो-सेवा, मातृ-पितृ सेवा, परिजन-सेवा, मित्र- सेवा, पाण्डवकुल-सेवा आदि प्रसिद्ध है और अन्त में पाण्डवों का दूत तथा अर्जुन का सारथी बनना, उनकी ये दो सेवाएँ तो बिलकुल अलौकिक थीं। कहाँ तक गिनाया जाय, अपने सेवा धर्म से ही प्रेरित होकर उन्होंने राज पाट का त्याग कर दिया। रासपच्ध्यायी में गोपियों ने भगवान के अवतार को जो ‘विश्व-मंगल’ कहा है वह बिलकुल ठीक है। इस प्रेमावतार में सत्य, शिव (कल्याण) और सुन्दर मधुर का बडा सुन्दर समावेश था। पशुओं में श्रेष्ठ पशु गौ, वाद्यों में परमोत्तम मधुर वाघ मुरली, वृक्षों में सुन्दर वृक्ष कदम्ब, सरिताओं में सुमनोहर सरिता यमुना, वस्त्रों में भव्य पीताम्बर, आभूषणों में मन- मोहन मयूर- मुकुट और शोभाश्री वनमाला- ये सभी सुन्दर योग थे। स्थान भी शोभाधाम व्रज-भूमि थी, जहाँ की भाषा आज तक मधुराति मधुर समझी जाती है। लीलाकाल में श्रीकृष्ण भगवान की किशोर वयस, गोप बालाकों की सखामण्डली तथा उनका गौआचरण आदि का सभी का स्वाभाविक मेल था। इस अनूठी-लीला के अतिरिक्त भगवान श्रीकृष्ण ने कंस-वध-जैसे जो अन्याय अनेक कार्य किये वे भी लोक-कल्याण के लिये ही किये। यही नहीं, बल्कि उन लोगों के तामसिक शरीर का परिवर्तन करके स्वयं उन लोगों का भी महान कल्याण किया। भगवान श्रीकृष्ण ने लोकहित के सामने अपने किसी स्वजन विशेष के हित को स्थान नहीं दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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