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(लेखक- श्रीयुत विपिनचन्द्र पाल)
’श्रीकृष्ण ही भारतवर्ष की आत्मा हैं, मेरी इस उक्ति का भाव यह है कि भारतवर्ष के इतिहास और क्रमिक विकास को समझने के लिए हमें श्रीकृष्ण के जीवन पर विचार करना चाहिये। श्रीकृष्ण ही हम भारतीयों के आदर्श थे। ऐतिहासिक दृष्टि से वे हम लोगों के सर्वोत्तम शिक्षक थे। उन्होंने हमें वैयक्तिक एवं सामाजिक संघ जीवन का सर्वोच्च तत्वज्ञान सिखलाया। उनके जीवन और उपदेशों को भलीभाँति समझकर हम लोग ‘राष्ट्र निर्माण’ का कार्य सुचारु रुप से कर सकते हैं, यही नहीं,उन्होंने भारतवर्ष की भिन्न-भिन्न जातियों और उपजातियों के बाहरी मतभेदों और विरोधों यहाँ के बहुसंख्यक सम्प्रदायों, संस्कृतियों, मजहबों और दार्शनिक सिद्धान्तों की उलझनों को सुलझाकर उनका युक्तियुक्त समन्वय कर दिया। वे हमारे ‘नरोत्तम’ अर्थात श्रेष्ठ पुरुष अथवा पूर्णता के आदर्श हैं, जिस आदर्श को प्राप्त करने के लिए प्रत्येक मनुष्य को क्रमश: आगे बढ़ने की चेष्टा करना चाहिये। वे हमारे यहाँ के दिव्य पुरष हैं, विश्वात्मा हैं। वे ही साक्षात नारायण अथवा पूर्ण पुरुष हैं, जो मनुष्य मात्र को अपने शरीर में इसलिये धारण करते हैं कि हम लोगों द्वारा उनके शाश्वत जीवन तथा प्रेम की क्रमश: अभिव्यक्ति हो सके। क्या हम ईसामसीह को ईसाई जगत की आत्मका नहीं कह सकते ? क्या वे ईसाइयों के जीवन और संस्कृति के विकास के नियामक नहीं हैं ? ईसाई जगत को समझने के लिए जैसे हमें ईसामसीह को समझना चाहिये। इसी प्रकार भारतवर्ष को समझने के लिए हमें श्रीकृष्ण को समझना होगा।
आप कदाचित यह कहें कि ‘जैसे सारा ईसाई जगत एक है, किन्तु क्या इसी प्रकार आप भारतवर्ष को भी एक कह सकते हैं ? सारे ईसाई जगत का एक ही धर्म, एक ही सामाजिक संगठन, एक ही आर्थिक व्यवस्था और एक ही संस्कृति एवं सभ्यता है। यूरोप और अमेरिका में परस्पर इतना सादृश्य है जितना उदाहरण के लिए मद्रास और बंगाल के प्रान्तों में भी नहीं होगा। फिर श्रीकृष्ण तो हिन्दुओं के अवतार थे, भारतवर्ष में छ: करोड़ मुसलमान भी तो रहते हैं। जो हिन्दुधम्र को नहीं मानते। मुसलमानों का बात तो अलग रही, हिन्दुओं में भी सब लोग श्रीकृष्ण भक्त नहीं हैं। इसके विपरीत यूरोप और अमेरिका का प्रत्येक निवासी साधारण तौर पर ईसा मसीह का अनुयायी है। हम यह देखते हैं कि भारतवर्ष के हिन्दुओं में अनेक ऐसे सम्प्रदाय है जो श्रीकृष्ण को अपना उपास्यदेव नहीं मानते, यही नहीं, यहाँ के निवासियों में अहिन्दुओं की भी बहुत बड़ी संख्या है। ऐसी दशा में हम यह कैसे कह सकते हैं कि जिस प्रकार ईसामसीह ईसाई जगत की आत्मा हैं उसी प्रकार श्रीकृष्ण हमारे देश अर्थात भारतवर्ष की आत्मा है ?
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