श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण भक्ति रस
अंसालम्बितवामकुण्डलधरं मन्दोन्नतभ्रूलतं किञ्चित्कुञ्चितकोमलाधरपुटं साचिप्रसारेक्षणम् । आलोलागुलिपल्ल्वैर्मूरलिकामायूरयन्तं युदा मूल कल्पतरोस्त्रिभंगललितं ध्यायेज्जगन्मोहन् ।। जो कन्धे तक लटकने वाले मनोहर कुण्डल धारण किये हैं, जिनकी भ्रूलता धनुष की भाँति खिंची हुई हैं, जिनके अधरपल्लव अति कोमल, सुन्दर और किंचित कुचिंत हैं (क्योंकि वे उनसे मुरली बजा रहे हैं), जिनके नेत्र बांके और विशाल हैं और जो कल्पतरु (कदम्ब) के नीचे मनहरण त्रिभंगरुप से खडे़ आनंद के साथ चंचल कोमल अंगुलियों को वंशी पर पिराते हुए उसे बजा रहे हैं, ऐसे जगन्मोहन, मनमोहन, श्यामसुन्दर का ध्यान करना चाहिये । विषयारम्भ से पूर्व लेख के शीर्षक ‘श्रीकृष्ण भक्ति रस’ का भावार्थ पाठकों की सेवा में रखना चाहता हूँ । श्री – ऐश्वर्यवाचक, श्रीमती राधिका । कृष्ण – कृषिर्भूवाचक: शाब्दो णश्च निर्वृतिवाचक: । ‘कृष’ धातु का अर्थ सत्ता है और ‘ण’ निवृति अर्थात आनंद का वाचक है, दोनों के योग से ‘कृष्ण’ शब्द बनता है। अर्थात जो सर्व काल मं, सर्व समय में और सर्व देश में नित्य आनंदरूप हो, वही कृष्ण है। (ख) ‘कृष’ शब्द का अर्थ आकर्षक भी होता है- गौतमीय तंत्र में कहा गया है- (ग) कृषशब्दश्च सत्तार्थो णश्चनंदस्वरूपक: । ’कृष’ शब्द का अर्थ सत्ता और ‘ण’ प्रत्यय का अर्थ आनन्दस्वरुप। आत्मा सुखरूप और आनन्दमय है, इसलिये कृष्ण शब्द का अर्थ आनन्दमय परब्रह्मा है। ब्रह्माजी कहते हैं- (घ) अहोभाग्य महोभाग्यं नन्दगोपब्रजौकसाम् । नन्द आदि ब्रजनिवासी गोपों के धन्यभाग्य हैं- महान भाग्य हैं, क्योंकि परमानन्दस्वरूप पूर्ण सनातन ब्रह्म स्वयं उनके स्वजन हैं। भागवत में अन्यत्र भी कहा भी है- गूढ़ परब्रह्म ही मनुजाकार रुप से प्रकट हुए हैं। भक्ति- हर तरह से ऐसे आनन्स्वरूप परब्रह्मा कृष्ण का श्री अर्थात् राधिका सहित श्रीकृष्ण का सेवन करना । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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