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(लेखक – पं. श्रीरमेशचन्द्र जी त्रिपाठी)
भगवन् ! मेरा उद्धार करो ! मेरी नौका पार लगाओ। मेरे पापों के बोझ से बस, यह डूबना ही चाहती है। बड़ी जीर्ण है यह, और फिर ऊपर से बोझ बेतौल है। विपरीत बयार बह रही है, चारों ओर घोर अन्धकार छाया हुआ है, हाथों-हाथ नहीं सूझता। खेने की कला भी नहीं मालूम। एकमात्र तुम्हारा ही भरोसा है। तुम्ही पार लगाने वाले हो !
मुरारे ! क्षमा करो, अपराधों को क्षमा करो, नहीं तो मेरा कहीं ठौर-ठिकाना नहीं। बड़ा अधम हूँ मैं। जीवनभर पाप-पंक में ही पड़ा रहा, दिन के चौबीस घण्टे और वर्ष के तीन सौ पेंसठ दिन भू भार को बढ़ाने में ही बिताये। भूलकर भी कभी तुम्हें स्मरण नहीं किया। परमात्मन ! मुझे अपनाओ ! शपथपूर्वक कहता हूँ, मुझे अपनी करनी पर बड़ी आत्मग्लानि होती है, पछता रहा हूँ, विश्वास रखो, अब ऐसा नहीं होगा। अब सँभलकर चलूँगा, दीनों की दीनता पर ध्यान दूँगा, दुखियों के दु:ख दूर करूँगा, भूखों को भोजन दूँगा, निर्वस्त्रों को वस्त्र दूँगा, सच कहता हूँ, सदा परोपकार रत रहूँगा– पाप की कमाई पुण्य कार्यों में लुटाऊँगा, कुकृति के कलंक को सुकृति के सरोवर में धो डालूँगा।
जगदीश्वर ! बड़ा मूर्ख बना मैं। अहंकारवश प्रतिज्ञा कर डाली संसार को संकटमुक्त करने की। तुम्हारी शक्ति का ध्यान तक नहीं किया। यह नहीं सोचा कि शक्ति के स्त्रोत तो तुम्ही हो, तुम्हारी इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। मनुष्य बना फिर चाहे जो, वास्तव में उसकी कोई हस्ती नहीं, उसका अस्तित्व तुम्हारी अनुकम्पा पर ही निर्भर है। मैंने अपनी सारी पूँजी लुटा दी, दिन-रात को एक कर दिया, खाना-पीना, सोना-धोना सब कुछ भूल गया, सदा गद्दी का आदी मैं गांव-गांव और वन-वन मारा-मारा फिरा, और भी अनेकों को अपना साथी बनाया, पर आज कई वर्षों के बाद देखता हूँ, देश की दशा नहीं सुधरी। यही नहीं, बल्कि दिन-दिन बिगड़ ही रही है। सन्तप्तों का सन्ताप बढ़ ही रहा है, अन्याय और अत्याचार का आतंक फैलता ही जाता है। समझ लिया, भलीभाँति समझ लिया, तुम्हारी दया के बिना कुछ भी सम्भव नहीं है। तुम जब तक बल नहीं देते तब तक कोई बलवान नहीं हो सकता। इसलिये अब तुम्हीं से विनम्र निवेदन करता हूँ, मुझे वह शक्ति दो, जिससे मैं संसार को संकटमुक्त कर सकूँ।
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