श्रीकृष्णांक
श्रीराधिका जी का उद्धव को उपदेश
गोपियों के अद्भुत प्रेम-प्रवाह में ज्ञानिशिरोमणि उद्धव का सम्पूभर्ण ज्ञानाभिमान बह गया। विवेक, वैराग्य , विचार, धर्म, नीति, योग, जप और ध्यावन आदि सम्पूैर्ण सम्बवल के सहित उसकी ज्ञान नौका का गोपियों के प्रेम समुद्र में डूब गयी। उद्धव गोपियों का मोह दूर करने आया था किन्तुभ वह स्वेयं ही उनके (दिव्ये) मोह में मग्नध हो गया। वह उन्हेंआ सान्व्मा ना देने के लिये आया था किन्तुव उसे उन्हींक की शरण लेनी पड़ी। वह आया था किन्तुर उसे उन्हींव की शरण लेनी पड़ी। वह आया था उन्हें उपदेश देने के लिये किन्तुव हो गया उनका शिष्यस ! आज गोपियों के सुमधुर प्रेम-पीयूष का रसास्वादन कर उद्धव श्रीमाधव के पास मधुपुरी जाने की तैयारी कर रहा है। प्या्रे कृष्णय के स्नेपहपूर्ण सहवास की स्मृ ति उसे अवश्य उस ओर खींच रही थी किन्तु इधर परिकर सहित श्रीरासेश्वेरी जी की सहृदयता ने भी उसके हृदय को बांध लिया था। इस दुविधा में उसे कई दिन हो गये। अन्तत में उसे घर लौटना ही था, अत: आज उसने मथुरा चलने की तैयारी कर ही दी। उद्धव को मथुरा जाने के लिये उद्यत देखकर हरि-प्रिया श्रीराधिकाजी खिन्नज-चित्त होकर आसन से उठीं और गोपियों के सहित उन्हों ने उद्धव के सिर पर हाथ रखकर उसे शुभ आशीर्वाद दिया, तथा हरी-हरी दूब, अक्षत, श्वेकत धान्या और मंगलमय पुष्पं उसके मस्तिक पर छोडे। तदनन्तार उन्होंंने खील, फल, पत्र, दधि, दूर्वा तथा पत्तोंम की डाल, फल, गन्धह, सिन्दूमर, कस्तूतरी और चन्द्न के सहित जल का कलश मँगाया एवं पुष्पल, माला, दीपक, रक्तथचन्दुन, पतिपुत्रवती साध्वी। स्त्रीा, सुवर्ण और रजत आदि मँगाकर उसे उनका दर्शन कराया। इस प्रकार मंगलोपचार के अनन्ततर महासाध्वीद श्रीराधिका जी अपने वक्ष:स्थेल पर गिरते हुए शोकाश्रुओं को छिपाकर हित और मंगलमय सत्या वचन बोलीं। वे कहने लगीं– उद्धव ! तुम्हाथरी यात्रा सुखमय हो, तुम्हाअरा सदा कल्यामण हो, तुम प्यासरे कृष्ण के प्रिय सखा हो, उनसे तुम्हें ज्ञान प्राप्ता हो। संसार के सम्पूशर्ण वरदानों में श्रीकृष्ण्चन्द्रस की दास्यपरति ही सर्वश्रेष्ठं वर है। स्नाेयुज्य्, सालोक्यू, सारूप्य्, सामीप्यम और कैवल्य् इन पांचों प्रकार की मुक्तियों से भी हरि-भक्ति ही श्रेष्ठ है। ब्रह्मत्वे, देवत्वक, इन्द्रयत्वम, अमरत्व , अमृत लाभ तथा सिद्धि-लाभ से भी हरि-भक्ति अति दुर्लभ है। यदि कोई पुरुष अपने पूर्व जन्मों के अनन्तव पुण्यदपुंज से भारतवर्ष में जन्मर पाकर हरि-भक्ति लाभ करता है तो फिर उसका जन्मे होना अत्यंन्तक कठिन है अर्थात वह अवश्यप मुक्तह हो जाता है। उसका जन्मो सफल है। वह अवश्य ही अपने माता-पिता, उनके पूर्वजों, अपने बन्धुह-बान्धावों तथास्त्रीह, गुरु, शिष्यि और सेवकों के भी सहस्रों् कर्म-कलापों का क्षय कर देता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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