श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण और अर्जुन की मैत्री
आत्मा हि कृष्ण: पार्थस्य कृष्णस्यात्मा धनन्जय: । श्रीकृष्ण अर्जुन के आत्मा हैं और अर्जुन श्रीकृष्ण के आत्मा हैं। अर्जुन श्रीकृष्ण को जो कुछ करने को कहते हैं, श्रीकृष्ण निस्संदेह वही सब करते हैं। श्रीकृष्ण अर्जुन के लिए दिव्यलोक का त्याग कर सकते हैं और अर्जुन भी श्रीकृष्ण के लिए प्राण परित्याग कर सकते हैं। ये उद्गार कुरुराज दुर्योधन के हैं, जो उन्होंने पाण्डवों के राजसूय का वर्णन करते समय अपने पिता महाराज धृतराष्ट्र के सामने प्रकट किये थे। मित्रता के शास्त्रवर्णित लक्षणों का मूर्तिमानस्वरुप श्रीकृष्णार्जुन की मैत्री में है। आहार-विहार में साथ रहना, प्राणप्रण से हित करना, सुख-दु:ख में समान रुप से साथी होना, मित्र के हित में ही अपना हित समझना, मित्र का विपत्ति से बचाने के लिए पहले से ही सावधान रहना, लेन-देने में किसी प्रकार का संकोच न करना, मित्र का मान बढ़ाना, मित्र की छोटी से छोटी सेवा करने में भी आनंद मानना, मित्र के दोषों को छिपाकर उसके गुण प्रकट करना, मित्र को दोषों से मुक्त करना, अपनी उत्तम से उत्तम वस्तु उसे देना और उसे उत्तम से उत्तम स्थिति पर पहुँचा देना आदि समस्त बातें श्रीकृष्ण के सख्य प्रेम में पायी जाती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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