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(लेखक- श्री के. एस. रामस्वामी शास्त्री, बी. ए. बी. एल., सबजज)
इन्द्रियों और आत्मा के बीच सबसे भीषण संग्राम अभी होना बाकी है, किन्तु इसका क्षेत्र पृथ्वी की, वायु अथवा समुद्र नहीं; अपितु स्त्री-पुरुषों का शारीरिक सम्बन्ध ही होगा। बाहरी सफलता की दृष्टि से इस समय मानव सभ्यता उन्नति के पथ पर है या नहीं, यह तो हम नहीं कह सकते, पर इतना तो स्पष्ट है कि वह कला की दृष्टि से उन्नति के पथ पर नहीं है, और स्त्री-पुरुषों के शारीरिक सम्बन्ध की दृष्टि से तो वह निश्चय ही अवनति की ओर झुकी हुई है।
सृष्टि के प्रारभ काल में स्त्री-पुरुषों का गार्हस्थ्य असभ्यता पूर्ण ही नहीं, पाशविकता और अमानुषता को लिये हुए रहा हो; सभ्यता के आदियुग में उसके अन्दर कठोरता और निष्ठुरता का समावेश हो गया हो और मध्यकालीन वीरता के युग में स्त्रियों का जो उच्च आदर्श सामने रखा गया था, वह चाहे काल्पनिक हो, परन्तु इन सबकी आज हम क्या देखते हैं ? केवल भोगपरता और विषयानन्द।
इसके लिये दी जाने वाली झूठी दलीलों ने विवाह के पवित्र संस्कार को केवल भोगमय अन्तर्जातीय विवाह (Civil marriage) के रूप में पलट दिया, यही नहीं, यह धार्मिक बन्धन और भी शिथिल होकर साहचर्य विवाह (Companionate marriage) का रूप धारण करना चाहता है और आगे चलकर तो आधुनिक साम्यवाद के प्रवाह में पड़कर स्त्री-जाति सारे राष्ट्र की समविभाज्य सम्पत्ति हो जाय तो भी कोई आश्चर्य नहीं। इस अवनति का मूल कारण अज्ञान है और वही सार्वत्रिक दुःख का कारण है। आज मनुष्य जितना अधिक शिक्षित (?) होता जाता है, उतनी ही उसकी मूर्खता अधिक बढ़ती जाती है। इसकी विद्या जैसी आज निरर्थक है, वैसी पहले कभी नहीं थी। अवश्य ही मनुष्य ने प्रकृति के दो-चार नये रहस्य जान लिये हैं; किन्तु साथ ही साथ कदाचित् नहीं नहीं, निश्चय ही यह उन महान रहस्यों में से कुछ को भूल भी गया है जो इसे पहले मालूम थे। नये खिलौने को पाकर गर्व से फूल जाने वाले एक अबोध छोटे बच्चे की तरह इसने अपनी सिद्धि को विख्यात करने की लालसा से बेमतलब हुल्लड़ मचा रखा है, इसी से आज इसकी आत्मश्लाघा के नारों से दिशाएं गूँज उठी हैं। ब्रह्मचर्य की शक्ति का जो विश्व की सारी शक्तियों में सबसे अधिक बलवान और सबसे अधिक गुप्त है, इसे आज पता ही नहीं है।
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