श्रीकृष्णांक
भागवत के बालकृष्ण
इस कलह प्रिय कलिकाल में इस विषय-विषैले, कामनाओं के कोलाहल-आकुलित कपटमय, कुत्सित काल में भी, इस पराधीन, पददलित दशा में, इस म्लेच्छाक्रान्त दारूण समय में भी और इस शिश्नोदर-परायण भोगयुग में भी, हमारे प्यारे इस भारत देश में जो योग का-विशेषकर भक्ति योग का सर्वत्र दर्शन हो रहा हैं, आज भी हिन्दू-समाज में अध्यात्म-चिन्ता है और आबाल-वृद्ध-वनिता, आगोपाल-नृपाल में पुरातनी आर्य-संस्कृति की चमत्कृति दृष्टिगत होती हैं, इसका एक कारण घर-घर में श्रीमद्धभागवत का प्रचार भी है। इधर शताब्दियों से हिन्दू-समाज को संजीवनी बूटी पिलाने वाले दो ही तो अनुपम, मनोहर, हृदय-हर ग्रन्थ हैं, जिनको पढ़-पढ़कर, सुन-सुनकर हम हिन्दू-के-हिन्दू बने रहते हैं। एक रामायण और श्रीमद्धभागवत्। संस्कृत में भागवत और हिन्दी में रामचरितमानस- ये दोनों ऐसे वरदानी दिव्य-ग्रन्थ, ऐसे जादू-भरे मोहन-मन्त्र, ऐसे चित्ताकर्षक, अति सुन्दर, सर्वथा पूर्ण ग्रन्थ हैं कि कुछ न पूछिये। आनन्द के समुद्र हैं, नीति के आकर हैं, प्रीति और प्रतीति के प्रभाकर हैं। पाठकगण रामायणाक में रामायण का राम-रसायन-पान कर चुके हैं। इन पंक्तियों में मैं यत्किंचित् भागवत-रसामृत पिलाने की चेष्टा करता हूँ। भाग्यवान् भावुक भक्त इस भागवतामृत का पान कर जीवन सफल कर लें। वेदरूपी कल्पवृक्ष का यह भागवत अत्यन्त मधुर, सुपक्व फल है। योगीन्द्र श्रीशुकाचार्य के मुखारविन्द से सुगन्धित इस अमृत-रस के अधिकारी भावुक भक्त या रसिकजन ही हैं। यथा-निगमकल्पतरोर्गलितं फलं |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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