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(लेखक- श्रीयुक्त शिवदास बुद्धिराज एम. ए., रि. सेसन जज काश्मीर)
श्रीमद्भगवद्गीता का 11वां अध्याय विश्व रुप दर्शन के नाम से प्रसिद्ध है। कुछ लेखक इस विश्वरुप दर्शन को एक रहस्य बतलाते हैं और कुछ लोगों की दृष्टि में यह सम्पूर्ण अध्याय ही प्रक्षिप्त है, वे कहते हैं कि ग्रन्थ के मुख्य विषय से इसका कोई संबंध अथवा संगति नहीं है। यहाँ हमें इन विभिन्न मतों की आलोचना नहीं करनी है और न यह अवसर ही उसके लिए उपयुक्त है। हमें तो केवल विश्वरुप की यथार्थ वैज्ञानिक व्याख्या करनी है। 11 वें अध्याय को ठीक तरह से समझने के लिए हमें ॠग्वेद के पुरुषसुक्त (ॠग्वेद 10।90) को देखना होगा, जहाँ सर्वव्यापी पुरुष को सहस्त्रों सिर, सहस्त्रों नेत्र तथा सहस्त्रों पैरवाला बतलाया गया है। इस पुरुष के यज्ञ से विराट उत्पन्न हुआ और विराट से आदिपुरुष की उत्पत्ति हुई उसके मुख से इन्द्र एवं अग्नि की, नेत्र से सूर्य की, प्राण-वायु से पवन की, कानों से चारों दिशाओं की, पैरों से पृथ्वी की तथा मस्तक के ऊर्ध्व भाग से आकाश की उत्पत्ति हुई। अथर्ववेद में यही सुक्त 19वे काण्ड में मिलता है।
वहाँ पर आरंभ में ‘सहस्त्रशीर्षा’ के स्थान में ‘सहस्त्रबाहु’ शब्द का प्रयोग किया गया है। गीता के ग्यारहवे अध्याय के अन्तर्गत जो विश्वरुप का वर्णन है उसका अधिकांश भाग पुरुषसुक्त के अनुसार ही है (देखिये गीता अ011 श्लोक 10, 19 और 23)।
छान्दोगय उपनिषद (5।18।2) में वैश्वानर (विश्वव्यापी आत्मा) का वर्णन इस प्रकार किया गया है-
यह प्रकाशपूर्ण (आकाश) उस विश्वव्यापी आत्का का मस्तक है, विश्वरुप (सूर्य) उसका नेत्र है, विभिन्न मार्गों वाला (वायु) उसका प्राण है, विस्तृत (आकाश) उसका मध्य-देह (धड़) है, रयि (जल) उसकी बस्ति अर्थात् मूत्राशय है, और आधार (पृथ्वी) उसके पैर हैं।[1]। मुण्डकोपनिषद (2।1।4) में अखिल विश्व की समष्टिरुप विराट का निम्नलिखित शब्दों का वर्णन किया गया है- यही समस्त भूत प्राणियों का अन्तरात्मा है, जिसका मस्तक अग्नि है, नेत्र सूर्य और चन्द्रमा हैं, कान चारों दिशाएं है, वाणी चारो वेद हैं, जो उसी से प्रकट हुए हैं, प्राणवायु है, हृदय समस्त विश्व है और पैरों से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई है।[2]।
मुण्डक और छाग्दोग्य उपनिषद के वर्णन में थोडा सा अन्तर है।
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