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श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण-चैतन्य महाप्रभु और श्रीकृष्ण भक्ति
सर्वसम्पद्पूर्ण आनन्द दायक आकर्षण सत्तायुक्त चिद्घन स्वरूप परम तत्त्व का नाम श्री कृष्ण है। इस परम तत्त्व की ओर आकृष्ट चित्कण स्वरूप जीव समुदाय की जो आकर्षण क्रिया है, उसी का नाम भक्ति है। यद्यपि यह श्री कृष्ण-भक्ति जीव मात्र का नित्य सिद्ध स्वरूपगत स्वधर्म है, तथापि जीव की जड़बद्ध-दशा में इसका विशेष परिचय मनुष्य शरीर में ही अधिक प्राप्त होता है। संसार में क्या सभ्य, क्या असभ्य, क्या आस्तिक, क्या नास्तिक, क्या पण्डित, क्या मूर्ख, कोई भी ऐसा नहीं, जो श्री कृष्ण-भक्ति से शून्य हो। जिस प्रकार शारीरिक स्थिति के लिये प्रकाश, जल, वायु, भोजन, शयन आदि की आवश्यकता है, उसी प्रकार आत्म तृप्ति के निमित्त श्री कृष्ण-भक्ति करना भी अनिवार्य है। हाँ, कुछ लोग ऐसे भी हैं जो ‘कृष्ण’ शब्द को सुनते ही चौंक उठते हैं और कहने लगते हैं- क्या हम किसी मनुष्य की पूजा करेंगे ?’ परन्तु ऐसा कहने वालों के तत्त्व विचार में अत्यन्त क्षुद्रता लक्षित होती है। ये लोग शब्द को लेकर विवाद करते हैं-शब्द के अर्थ पर विचार नहीं करते। यदि ‘श्री कृष्ण’ शब्द के उपर्युक्त अर्थ पर विचार किया जाय तो कभी किसी को कोई आपत्ति करने का अवसर ही प्राप्त न हो। इस जड़-जगत में चर-अचर, क्षुद्र-महत जो कुछ भी है, वह सभी आकर्षण के सूत्र में आबद्ध है। एक क्षुद्र परमाणु से लेकर सुबृहत भूपिण्ड सहित आकाशस्थ अनन्त नक्षत्रराशि पर्यन्त सभी एक सूर्यमण्डल के आश्रय अवस्थित है। अन्त में एक वह विराट तत्त्व है, जो सब का मूल आश्रय है और स्वयं किसी के आश्रित नहीं है। सब उसी के आकर्षण से स्थित हैं। जड़-जगत में जड़ाकर्षण-क्रिया के परिणाम का नाम ही सुख है जड़बद्ध जीवों की इन्द्रियाँ अपने विषयों की ओर इसीलिये आकर्षित होती हैं कि उन्हें उन से सुख मिलता है। यही आकर्षण जब चित्तत्त्वगत होता है, तब उसकी प्रेम संज्ञा होती है और इसके परिणाम का नाम ही आनन्द होता है। तात्पर्य यह कि, जहाँ सुख है वहीं आकर्षण है और जहाँ आनन्द है वही प्रेम है। सुख या आनन्द ही श्री कृष्ण हैं- आकर्षण या प्रेम ही भक्ति है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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